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________________ * लावनी * एक उहण्डकी भिक्षा ॥ स्नेह तजो घरबार तजो नहीं भोग विला. सनको मन शिक्षा। लाल विनोदीके साहिबके संग भूप सहन लई तब दिक्षा ॥ ८॥ काहने जाय कही सुनो राजुल तेरो पिया गिरिनारि चढ़ो है। इतनी सुन भूमि पछार लई मानो तन सेती जीव कढ़ो है ॥ सो उग्रसेनसे जाय कही सुन तात विधाता अनर्थ गढो है । लाज सबै सुध भूल गई पिय देखनको जु उछाह बढ़ो है ॥ ६ ॥ लाड़ली क्यों गिरनारि चढ़े उस ही पति तुल्य सुधी वर लाऊ। प्रोहितको पठावाऊ अभो बहु भूपरके सब देश टुढाऊ । व्याह रचों फिरिके तुम्हरो महि मण्डलके सब भूप बुलाऊ । लाल विनोदीके नाथ बिना द्यु तिवंतको कंत तुझे परणाऊ॥ १० ॥ काहे न बात सम्हाल कहो तुम जानन हो यह बात भली है। गालियां काढ़त हो हमको सुनो तात भली तुम जीभ चली है। मैं सबको तुम तुल्य गिनों तुम जानत ना यह बात रली है। या भवमें पति नेमि प्रभू वह लाल विनोदीको नाथ बली है ॥ ११ ॥ मेर। पिया गिरनारि चढ़ो सुन तात मैं भी गिरिनारि बढ़ोंगी। मंग रहों पियके वनमें तिन हो पियको मुख नाम पढ़ोंगी ॥ और न बात सुहाय कछू पियकी गुणमाल हियेमें पढ़ोगी। कंत हमारे रचे शिवसे शिव थानको मैं भी सिवान चढोंगी॥ १२ ॥ इति ॥ ७६ लावन ।। धन्य दिवस धनि घड़ी आजकी जिन छवि नजर पड़ी। स्वपर भेद बुधि प्रगट भई उर भर्म बुद्धि बिसरी ॥ टेक-नासिकान है दृष्टि मनोहर वर विराग सुथरी । आतम शुद्ध सुराजत मानो अनु
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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