SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५८ * जिनवाणी संग्रह . नर एम ॥ १४ ॥ कमला वपल रहे थिर नाहिं । योवन रूप जरा लिपटाहि ॥ सुत मित नारी नाव संयोग। यह संसार स्वप्नको भोग ॥ १५ ॥ यह लख चित धर शुद्ध स्वभाव । कीजै श्रीजिन धर्म उपाय ॥ यथा भाव तैसो गति गहै। जैसी गति तैसो सुख लहै ॥१६॥ जो मूर्ख है धर्म कर होन । विषय प्रन्य रविव्रत नहिं कीन । श्रीजिन भाषित धर्म न गहै। सो निगोदको मारग लहै ॥ १७ ॥ आलस मन्द बुद्धि है जास । कपटी विषय मग्न शठ तास ॥ कायरता मद परगुण ढके। सो तियञ्चयोनि लइ सके ॥ १८ ॥ आरत रुद्र ध्यान नित करे । क्रोध आदि मतसरता धरे ॥ हिंसक बैरभाव अनुसरे । सो पापिष्ट नरक गति परे ॥ १६ ॥ कपट हीन करुणा वित माहि । है उपाधि ये भूले नाहिं ॥ भक्तिवन्त गुणवन्त जो कोय । सरलस्वभाव जो मानुष होय ॥ २० ॥ श्रीजिन वचन मग्न तप दान । जिन पूजे दे पात्रहि दान ॥ रहै निरन्तर विषय उदास । सोई लहै स्वर्ग आवास ॥२९॥ मानुष योनि अन्तके पाय । सुन जिन वचन विषय विसराय ॥ गहे महाव्रत दुर्द्धर वोर। शुक्लध्यान धर लहैं शिव धोर ॥२२॥ धर्म करत सुख होत अपार । पाप करत दुख विविध प्रकार ॥ बाल गुपाल कहै सब नार। इष्ट होय सोई अवधार ॥२३॥ श्रीजिनधर्म मुक्ति दातार। हिंसा धर्म परत संसार ॥ यह उपदेश जान बड़ भाग। एक धर्म सो कर अनुराग ॥ २४॥ ब्रत संयम जिम पद थुति सार । निर्मल सम्यक भाव निवार ॥ अन्त कषाय विषय कृषि करो। जो तुम भक्ति कामिनो वरो ॥२५॥ दोहा-बुध कुमदनि शशि सुख करन, भो दुख नाशन जान ।
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy