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________________ * जिनवाणी संग्रह * जन बसे शिव अब बसत फिर बसि हैं सही । दौलत स्वरचि पर विरचि सद्गुरु सीख नित उर घर यही ॥ ११ ॥ इति ॥ 'चौथा अध्याय) १४२ ६४ फूलमाल पचीसी । दोहा - जैन धरम त्रेपन किया, दया धरम संयुक्त । यादों वंश विषै जये, तोन ज्ञान करि युक्त ॥१॥ भयो महोत्सव नेमिको, जूनागढ़ गिरनार । जाति चुरासिय जनमत जुरे क्षोहनी चार ॥ २ ॥ माल भई जिनराजकी, ग्रंथी इन्द्रन आय ॥ देशदेशके भव्य जन; जुरे लेनको धाय ॥ ३ ॥ छप्पय देश गौड़ गुजरात चौड़ सोरठि वीजापुर । करनाटक कशमीर मालवो अरु अमेरधुर || पानीपत होंसार और बैराट महा लघु । काशी अरु मरहट्ट मगध तिरहुत पट्टन सिंधु ॥ तह वंग चंग बंदर सहित उदधि पार लौ जुरिय सब । आए जु चोन मह चीन लग, माल भई गिरनारि जब || ४ || - नाराव छन्द । सुगन्ध पुष्प वेलि कुदि केतकी मगायकें । चमेली चप सेवती जुही गुही जु लायकें ॥ गुलाब कंज लायची सबै सुगन्ध जातिके । सुमालती महा प्रमोद लै अनेक भांतिके ॥ ५ ॥ सुवर्ण तारपाई बीच मोति लाल लाइया । सु होर पन्न नील पीत पद्म
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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