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________________ * जिनवाणी संग्रह * - पञ्चम ढाल। मनोहर छन्द १४ मात्रा। मुनि सकल व्रती बड़ भागी। भवभोगनते वैरागो ॥ वैराग्य उपावन माई । चिंत अनुप्रेक्षा भाई ॥१॥ इन चिन्तत समरस जागे, जिम ज्वलन पवनके लागे ॥ जवही जिय आतम जाने । तबही जिय शिवसुख ठाने ॥२॥ जोवन गृह गो धन नारी । हय गय न आज्ञाकारी ॥ इन्द्रीय भोग छिन थाई। सुरधनु चपला चप. लाई ॥३॥ सुर असुर खगाधिप जेते। मृत ज्यों हरि काल दले ते॥माणिमंत्रतंत्र बहु होई । मरते न बवावे कोई॥४॥चहुंगति दुख जीव भरे हैं । परिवर्तन पञ्च करै हैं ॥ सब विधि संसार असारा । तामें सुख नाहि लगारा ॥५॥ शुभ अशुभ करम फल जेते । भोगें जिय एकहिं तेते॥ सुत दारा होय न सोरी। सब स्वारथके हैं भारी॥६॥ जलपय ज्यों जियतन मेला। पै भिन्न २ नहिं भेला । जो प्रगट जुदे धन धामा। क्यों है इक मिल सुन रामा ॥७॥ पल रुधिर राध मल थैलो। कीकस वलादित मैलो ॥ नव द्वार बहै घिनकारी अस देह करै किम यारो ॥८॥ जो योगनकी वपलाई। जाने है आश्रव भाई ॥ आश्रय दुखकार घनेरे । बुद्धिवंत तिन्हें निरबेरे ॥६॥ जिन पुण्य पाप नहिं कीना। आतम अनुभव चित दीना ॥ तिनहीं विधि आवत रोके । संबर लहि सुख अवलोके ॥१०॥ निज काल पाय विधि झरना । तासों निजकाज न सरना ।। तप करि जो कर्म खपावै । सोई शिवसुख दरसावै ॥११॥ किनई न करो न धरै को। षट् द्रव्यमयी न हर को ॥ सो लोकमाहिं बिन समता। दुख सहे जीव नित भ्रमता ॥१२॥ अंतिम प्रीवकलोंको हद। पायो अनन्त
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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