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________________ * जिनवाणी संग्रह * सयाने; काल वृथा मत खोवें । यह नरभव फिर मिलन कठिन है जो सम्यक् नहिं होवे ॥१७॥ ११० चतुर्थ ढाल | दोहा - सम्यक श्रद्धा धारि पुनि, सेवहु सम्यकज्ञान । स्वपर अर्थ बहु धर्मयुत, जो प्रगटावन भान ॥ रोलाछन्द २५ मात्रा । सम्यक साथै ज्ञान, होय पै भिन्न अराधी । लक्षण श्रद्धा जान दुहमें भेद अबाध ॥ सम्यक कारण जान, ज्ञान कारज है सोई । युगपत होतेह, प्रकाश दोपकत होई ॥ १ ॥ तास भेद दो है, परोक्ष परतक्ष तिन माहीं । मति श्रुत दोय परोक्ष, अक्ष मनतें उपजाहीं ॥ अवधि ज्ञान मन पय्र्यय, दो है देश प्रत्यक्षा। द्रव्यक्षेत्र परिमाण, लिये जाने, जिय स्वच्छा ||२|| सकल द्रव्यके गुण, अनन्त पर्याय अनन्ता | जानें ऐक काल, प्रगट केवलि भगवन्ता ॥ ज्ञान समान न आन, जगतमें सुखको कारण । इहि परमामृत जन्म, जरामृत रोगनिवारन ॥३॥ कोटिजन्म तप तर्प, ज्ञान बिन कर्म करें जो । ज्ञानी के छिनमांहि त्रि. गुप्तितें सहज टरै ते ॥ मुनिबन धार अनन्त, बार ग्रोवक उपजायो । निज आतम ज्ञान बिना सुखलेश न पायो ॥ तातें जिनवर कथित, तत्व अभ्यास करीजे । संशय विभ्रम मोह, त्याग आपो लख लीजै ॥ यह मानुष पर्याय, सुकुल सुनयो जिनबानी । इह विधि गये न मिलें, सुमनि ज्यों उदधि समानी ||५|| धन समाज गज बाज, रात तो काज न आवैं। ज्ञान आपको रूप भये, फिर अचल रहावे ॥ तास ज्ञानको कारण स्वपर बिवेक बखानो । कोटि उपाय बनाय, भoय ताको उर आनो ॥ ६ ॥ जो पूरब
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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