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________________ * छहढ़ाला * २०७ उमलनाव ॥ जे राग द्वेष मलकरि मलान । बनितागदादि जुन चिन्ह चोन्ह् ॥१०॥ तेहैं कुदेव तिनकी ज सेव । शठ करत न तिन भवभ्रमणछेव ॥ गगादि भाव हिंसा समेत । दर्बित प्रसथावर मरण खेत ॥११॥ जे क्रिया तिन्हें जानहु कुधर्म । निस सरधे जीव लहे अशर्म ॥ यांक गृहीत मिथ्यान जान । अब सुन ग्रहीत जो है अजान ॥१२॥ एकान्त बाद दूषित समस्त । विषयादिक पोशक अ. प्रशस्त ॥ कपिलादि रचित श्रनका अभ्यास । सोहै कुबोध बहु देन त्रास ॥१३॥ जो ख्यातिलाभ पूजादि वाह। धर करत विविध विध देहदाह ॥ आतम अनात्मके ज्ञान हीन । जे जे करनो तन करन छीन ॥१४॥ ते सब मिथ्या चारित्र त्याग । अब आतमके हितपंथ लाग ॥ जगजाल भ्रमणको देय त्याग । अब दोलत निजआतमसु पाग ॥१५॥ तृतीय ढाल। जोगी रासा। आतमको हित है सुख सो सुख, आकुलता बिन कहिये। आकुलना शिवमांहि न नाते, शिव मग लाग्यो चहिये। सम्यक्. दर्शन ज्ञान चरन शिव, मग सो दुबिधि विचारो। जो सत्यारथ पसो निश्चय, कारण सों व्यवहागे ॥१॥ परद्रव्यनते भिन्न आप मैं, रुवि सम्यक्त भला है । आप रूपको जानपनो सो, सम्यक आन कला है | आपरूपमें लीन रहे थिर, सम्यक चारित सोई। अब विवहार मोम्व-मग सुनिये, हेतु नियतको होई ॥२॥ जीव अजीव नत्व अरु आश्रत, बंधरु संवर जानो। निजेर मोक्ष बहे निज तिनको, ज्योंको त्यों सरधानो॥ है सोई समकित विवहाकी, अश इन रूप बखानो। तिनको सुन सामान्य विशेषे, दिढ़ प्रतीति उर
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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