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________________ * जिनवाणी संग्रह * जलाई । तामधि जे जीव जु आये। ते ह परलोक सिधाये ॥२१।। बांधो अन रात्रि पिसायो। ईधन बिन सोध्यो जलायो॥ झाड ले जांगा बुहारी। विण्टो आदिक जीव विदारी । २२ ।। जल छानि जीवानी कीनो। सोहू पुनि डारि जु दीनो ॥ नहि जल. थानक पहुंचायो। किरिया बिन पाप उपाई ॥ २३ ॥ जल मलमोरिन गिरवायो कृमि कुल बहु घात करायो ॥ नदियनि बिच चीर धुवाये। कोसनके जोव मराये ॥ २४ ॥ अन्नादिक शोध कराई। तामै ज जीव निसराई । तिनका नहि जतन कराया। गरियाले धूप डराया। २५ ॥ पुन द्रव्य कमावन काज। बहु आरम्भ हिसा साज ॥कीय निसनावश भारी। करुना नहि रञ्च विचारी ॥ २६ ॥ इत्यादिक पाप अनंता । हम कीने श्रीभगवंता ।। सन्तति चिरकाल उपाई। बानीने कहिय न जाई ॥२७॥ ताको ज उदय जब आयो। नानाविध मोहि सतायो॥ फल भुजत जिय दुख पावै। बचते कैसें करि गावै ॥ २८ ॥ तुम जानत केवल ज्ञानी। दुख दूर करो शिवथानी ॥ हम तो तुम शरन लही है। जिन तारन विरद सही है ॥ २६ ॥ जो गांवपनी इक होवे । सो भी दुखिया दुख खोवै ॥ तुम तीन भुवनके स्वामी । दुख मेटो अंतरजामी ॥ ३० ॥ द्रोपदिको चीर बढ़ायो। सोना पनि :कमल रचायो ॥ अंजनसे किये अकामी। दुख मेटो अन्तरयामो जामा ॥३१॥ मेरे अवगुन न चितारो। प्रभु अपनो विरद निहारो॥ सब दोष रहित करि स्वामी। दुख मेंटहु अन्तरजामो ॥ ३२ ॥ इन्द्रादिक पदवी न चाई। विषयनि मैं नाहिं लुभाऊ॥ रागादिक दोष हरोजे । परमातम निजपद दीजे ॥३॥
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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