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________________ * इष्ट छत्तीसी * देवरचित हैं चार दश,अर्द्धमागधी भाष । आपस मांहीं मित्रता निरमल दिश अआकाश ॥६॥ होत फूल फल मृतु सबे, पृथवी काच समान । चरण कमलतल कमल हे, नभ ने जय जय बान ॥१०॥ मन्द सुगन्ध बयारि पुनि, गंधोदककी वृष्टि । भूमिविर्षे कंटक नहीं, हर्षमयी सब सृष्टि ॥१९॥ धर्मचक आगे रहे,पुनि वसु मङ्गल सार । अतिशय श्रीअरहन्तके, ये चौतीस प्रकार ॥ अर्थ ---१ भगवानकी अर्द्धमागधी भाषाका होना, २ समस्त जीवोंमें परस्पर मित्रताका होना, ३ दिशाओंका निमल होना, ४ आकाशका निर्मल होना, ५ सब ऋतुके फल पुष्प धान्यादिकका एक ही समय फलना,६ एक योजनतककी पृथिवीका दर्पणवन निर्मल होना, ७ चलते समय भगवान्के चरण कमलके तले सुवर्ण कमलका होना, ८ आकाशमें जय जय ध्वनिका होना, ह मंदसुगन्धित पवनका चलना, १० सुगन्धमय जलकी वृष्टि होना, ६६ पवनकुमार देवोंके द्वारा भूमिका कण्टक रहित होना, १२ समम्ल जीवोंका आनन्दमय होना, १३ भगवानके आगे धर्मचक्रका चलना, १४ छत्र, चमर, ध्वजा, घन्टादि अष्ट मङ्गल द्रव्योंका साथ रहना । इस प्रकार सब मिलाकर ३४ अतिशय अरहन्त भगवानके होते हैं ॥१२॥ अष्ट प्रातिहार्य । तरु अशोकके निकटमें, सिंहासन छबिदार । तीन छत्र सिरपर लसें भामंडल पिछवार ॥१३॥ दिव्यध्वनि मुखते खिर पुष्पवृष्टि सुर होय । ढारे चौसठि वमर लख । बाजै दुदुभि जोय ॥१४॥ अर्थ-१, अशोकवृक्षका होना, २ रनमय सिंहासन, ३ भग
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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