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________________ * इष्ट छत्तोसी * - पन्थ भक्ति रचना कर पूरे। एञ्च कल्याणक ऋद्धि पाय निश्च दुख चूरै ॥ २४ ॥ अहो जगत्पति पूज्य अवधि ज्ञानी मुनि हारे। तुम गुण कीर्तन माहि कौन हम मन्द विचारे ॥ थुति छल सो तुम घिर्ष देव आदर विस्तारे। शिव सुख पूरण हार कल्पतरु यही हमारे ॥ २५ ॥ बादराज मुनिराज शब्द विद्याके स्वामी। बादराज मुनिराज तक विद्यापति नामी ॥ बादराज मुनिराज काव्य करता अधिकारी । बादराज मुनिराज बड़े भवजन उपकारी ॥२६॥ मूल अर्थ बहु विधि कुसुम, भाषा सूत्र मझार । भक्तिमाल भूदर करी, करो कण्ठ सुखकार ॥१॥ (तीसरा अध्याय) २४ इष्ट छतीसी । सोरठा-प्रणमू श्री अरहंत, दयाकथित जिन धर्मको । गुरु मिरग्रंथ महत, अवर न मानू सर्वथा ॥ १ ॥ बिन गुणकी पहिचान जाने वस्तु समानता । तातें परम बखान,परमेष्टी गुणको कहूं ॥२॥ रागोषयुत देव, मानै हिसाधर्म पुनि । सग्रन्थगुरुको सेव, सो मिथ्याती जग भ्रमै ॥३॥ अरहतके ४३ मूल गुण । दोहा-चौतीसों अतिशय सहित, प्रातिहार्य पुनि आठ । अनत चतुष्ठय गुणसहित, छोयालीसों पाठ ॥ ४ ॥
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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