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________________ ५४ * जिनवाणी संग्रह * - भासोऽप्यपगततनुर्माननिवहो । विचित्रात्माप्येको नपतिवरसिद्धाथतनयः ॥ अजन्मापि श्रीमान् विगतभवरागोद्भुतगतिः । महावीर० ॥५॥ यदीया वाग्गङ्गा विविधनयकल्लोलविमला । वृहज्ञानाम्भोभिर्जगति जनतां या स्नपयति ॥ इदानीमप्येषा बुधजनमराल : परिचिता । महावीर० ॥ ६ ॥ अनिर्वारोद्रेकस्त्रिभुवनजयी कामसुभटः । कुमारावस्थायामपि निजवलाद्येन विजितः ॥ स्फुरन्नित्यानन्द प्रशमपदराज्याय स जिनः । महावीर० ॥ ७॥ महामोहातङ्कप्रशमनपराकस्मिकभिषम् । निरापेक्षा बन्धुर्विदितमहिमा मङ्गलकरः ॥ शरण्यः साधूनां भवभयभृत्तामुत्तमगुणो। महावीर० ॥८॥ महावीराष्टकं स्तोत्रं भक्त्या भागेन्दुना कृतम्। यः पठेच्छु. णुयाश्चापि स याति परमां गतिम् ॥ ६ ॥ १७ महावीराष्टक भाषा पं० गजाधरलालजी, न्यायतीर्थ जिन्होंकी प्रज्ञामें, मुकुरसम चैतन्य जड़ भी, स्थिती नांशोत्पत्ती, युत झलकते साथ सब ही। जगद्शाता मार्ग, प्रकट करते सूर्यसम जो, महावीरस्वामी, दरश हमको दें प्रकट वे ॥१॥ जिन्होंके दो चल, पलक अरु लाली रहित हो, जनोंको दर्शाते, हृदयमत क्रोधातिलयको। जिन्होंकी शांतात्मा, अतिविमलमूर्ती स्फुटमहा, महावीरस्वामी, दरश हमको दें प्रकट वे ॥२॥ नमते इंद्रोंके, मुकुटमणिकी कांति धरता, जिन्होंके पादोंका युग, ललित, संतप्त जनको। भवानीका हर्ता, स्मरण करते ही सुजल है, महावोरस्वामी, दरश हमको दें प्रकट वे ॥३॥ जिन्होंकी पूजाले, मुदित
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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