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________________ जन्मकल्याण पूजा। ३८५ वसुविध कर्म हगे॥ हरि मेरु० धूपं । श्रीफल अंगूर अनार खारक थार भरों। तुम चरन चढ़ाऊ खार,ताफल मुक्ति वरों ॥ हरि मेरु० फल। जल आदिक आठ अदोष, तिनका अर्घ करों। तुम पद पूजों गुण कोष, पूरन पद सुधरों । हरि मेरु० अर्घ । आरती जोगीरासा। जन्मसमय उच्छव करनेको. इन्द्र शवी युत धायो। तिहको कछु वरणन करवेको, मेरो मन उमगायो॥ बुधिजन मोंको दोष न दीजो, थोरो बुद्धि भुलायो साधू दोष क्षमे सब हीके, मेरी करो सहायो॥ १॥ (छद कामिनी-मोहन-मात्रा २० ) जन्म जिनराजको जबहि निज जानियों। इन्द्र धरनिन्द्र सुर सकल अकुलानियों ॥ देव देवाङ्गना चलिय जयकारती शचिय सुरपति सहित करति जिन आरतीं ॥ २ ॥ साजि गजराज हरि लक्ष जोजन तनो। बदन शत बदन प्रति दन्त बसु सोहनो ॥ सजल भरि पूर सरदन्त प्रति धारती। शचिय सुरपति सहित, करति जिन आरती ॥३॥ सरहिं सर पंच दुय एक कमलिनि बनी। तासु प्रति कमल पञ्चीस शोभा घनी॥ कमल दल एकसो आठ विसता. रती । विय सुरपति सहित करत जिन आरतीं ॥४॥ दलहि दल अप्सरा नाचहीं भावसों। करहिं सङ्गीत जयकार सुर चावसों ॥ तगड़दा तगड़ थई करत पग धारतों। शवियं सुरपति स० ॥५॥ तासु करि बेठि हरि सकल परिवारसों। देहि परदक्षिणा जिनहि . जयकारसों। आनि कर शचियं जिन नाथ उर धारतीं। शचिय
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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