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________________ ₹७४ जिनवाणी संग्रह | नाहि प्रेम उर धरत हैं | ज्यों जगमाहिं किसान खेतीको करें। नाज काज जिय जान सु शुभ आपहि भरें ॥ ऐसे पूजादाम भक्ति वश कीजिये । सुख सम्पति गति मुक्ति सहज पा लीजिये ॥ पूर्णा ॥ १० ॥ काथ जयमाला । दोहा- सोनागिरिके शीसपर, जिन मन्दिर अभिराम । तिन गुणकी जयमालिका, वर्णत आशाराम ॥ १ ॥ पदरी छंद । गिरि नोचे जिन मन्दिर सुवार । ते यतिन रचे शोभा अपार । तिनके अति दीर चौक जान । तिनमें यात्री मेलें सुआन ॥ २ ॥ गुमठी छज्जे शोभित अनूप । ध्वज पंकित सोह्रै विविधरूप । बसु प्रातिहार्य तहां धरे आन । सब मंगल द्रव्यनकी सुखान ||३| दरबाजोंपर कलशा निहार । करजोर सुजय जय ध्वनि उच्चार । इक मन्दिरमें यतिराजमान । आचार्य विजयकीर्ती सुजान ॥ ४ ॥ तिन शिष्य भागीरथ विबुध नाम । जिनराज भक्ति नहिं और काम || अब पर्वतको चढ़ चलो जान । दरवाजो तहां इक शोभमान ॥ ५॥ तिस ऊपर जिन प्रतिमा निहार । तिन बंदि पूज आगे सिधार । वहां दुःखितभुखितको देत दान । यावकजन जहां हैं अप्रमाण ६ आगे जिन मन्दिर दुई ओर। जिन गान होत वाजित्र शोर 1 माली बहु ठाढ़ चौक पौर। ले हार कल्गी तहां देत दौर ॥ ७ ॥ जिन यात्री तिनके हाथ मांहि । वखशीस रीक तहां देत जाहिं । दरवाजो तहां दूजो विशाल । तहां क्षेत्रपाल दोड ओर लाल ॥८॥ दरवाजे भीतर चौक माहिं। जिन भवन रखे प्राचीन आहिं ।
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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