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________________ ३७५ जिनवाणी संग्रह। मैं अल्प बुद्धि जयमाल गाय। भवि जीव शुद्ध जेकी पनाय ॥२३॥ तुम दया पिशाला सब क्षितिपाला तुम गुणमाला कण्ठधरी। ते भव्य विशाला तज जग जाला नागत भाला मुक्तिवरी। इत्याशीर्वाद: ।। (७७) सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पूजा। अडिल्ल छन्द। जम्बूद्वीप मझार भरत क्षेत्र सुकहों। आर्यखण्ड सुजान भद्र देशे लहो ॥ सुवर्णगिरि अभिराम सुपर्वत है तहां । पञ्चकोड़ि अरु अर्द्ध गये मुनि शिव जहां ॥१॥ दोहा-सोनागिरिफे शोशपर, बहुत जिनालय जान । चन्द्रप्रभू जिन आदिदे, पूजों सय भगवान ॥२॥ ओं ह्रीं अत्रवत्रवतर: संवोषटाहाननं । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॥ अत्र ममऽसन्निहितो भव भव वषट् सनिधीकरणं । अथाष्टक सारंग छंद-पदमद्रहको नीर ल्याय गंगासे भरके । कनक कटोरी माहि हेम थारनमें धरके । सोनागिरिके शीश भूमि निर्वाण सुहाई पंचकोडि अरु अद्ध मुक्ति पहुंचे मुनिराई ॥ चन्द्रप्रभु जिन आदि सकल जिनवर पद पूजो। स्वर्ग मुक्ति फल पाय जाय अविवल पद हूजो। दोहा-सोनागिरिके शीशपर, जेते सब जिनराय। तिनपद धारा तीन दे, तृषा हरणके काज ।। ॐ ह्रीं श्रीसोनागिरि निर्वाणक्षेत्रभ्यो ॥ जल ॥१॥ केसर आदि कपूर मिले मलयागिरि चन्दन । परमल मधिपती तास और सब दाह .निफन्दन ॥ सोनागिरिके शीशपर, जेते सब जिनराज । ते सुगन्ध कर पूजिये,दाह निकन्दन काज। सुगन्ध॥२॥
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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