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________________ देव पूजा , ३५५ सिखर सम्मेद महागिरि भूपर ॥ एकबार बंदे जो कोई । ताहि नरक पशुगति नहिं होई ॥८॥ नरगति नप सुर शक कहावै । तिहुं जग भोग भोगि शिव पावै॥विधन विनाशक मंगलकारी । गुण बिलास बंदो नरनारी॥ ८॥ घता-जो तीरथ जावे पाप मिटाई, ज्यावे गावै भगति करे। ताको जस कहिये संपति लहिये, गिरिके गुणको बुध उचरे ॥१०॥ ॐ ह्रीं वतुर्विंशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो अयं । (७२) देवपूजा । दोहा-प्रभु तुम राजा जगतके, हमें देय दुख मोह । तुम पद पूजा करत हू, हम करुना होहि ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट्वत्वारिषद्गुणसहितश्रीजिनेन्द्रभगवन् अत्र अवतरअवतर। संवौषट् अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव ! वषट् । बंद विभंगी। बहु तृषा सतायो, अति दुख पायो तुमपै आयो जल लायो। उत्तम गंगाजल, शुचि अति शीतल, प्राशुक निर्मल, गुन गायो॥ प्रभु अंतरजामी, त्रिभुवननामी, सबके स्वामी, दोष हरो। यह अरज सुनीज, ढील न कीजै, न्याय करीजै, दया धरो, ॥१॥ ___ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितवटचत्वारिंशद्गुणसहितश्रीजिनेन्द्रभगवदभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्व पामीति स्वाहा । अघतपत निरंतर, अगनि पठंतर, मो उर अंतर, खेद करयो। ले बावन चंदन दाहनिकंदत; तुमपदबंधन, हरष धरयो ॥ प्रभु०॥
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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