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________________ ज्ञानपूजा । दीपज्योतितमहार, घटपट परकाशे महा । सम्यक्षा० ॥६॥ ओ ही अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ धपधानसुखकार, रोग विधन जड़ता हरे । सम्यकशा० ||७|| ओं ही अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ श्रीफल आदि विचार निहचे सुरशिवफल करे | सम्यकशा० ||८|| आँ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय फलं निर्वपामीमि स्वाहा० ॥ ८ ॥ ज गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु । सम्यकशा० ॥ ॥ ओं ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥ ३४७ अथ जयमाला दोहा - आप आप जान नियत, प्रथपठन व्योहार । संशय विभ्रम मोह विन, अष्टअङ्ग गुनकार ॥१॥ चौपाई मिश्रित गीताछन्द I 18 सम्यकज्ञान रतन मन भाया । आगम तीजा नैन बताया । अक्षर शुद्ध अरथ पहिचानौ । अच्छर अरथ उभय संग जानौ जानौं सुकालपठन जिनागम, नाम गुरु न छिपाइये । तपरीति गहि बहु मान देकेँ, विनयगुन चित लाइये ॥ ए आठ भेद करम उछेदक, ज्ञानदर्पन देखना । इस ज्ञानहीसों भरत सीझा, और सब पटपेखना ॥ ३॥ ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय पूर्णार्थं निर्वपामीति स्वाहा |२| ( ६ ) चारित्र पूजा । विषयरोग औषध महा, दवकषायजलधार । तीर्थंकर जाक धरें, सम्यकचारितसार ॥१॥
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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