SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बाईस परीषह। संसारी। ऐसी दुर्द्धर नग्न परीषह जीते साधु शील व्रतधारी। निर्विकार बालकवत् निर्भय तिनके पायन धोक हमारी॥ ___ ७ अरति परीषह-देश कालको कारण लहिके होत अचेन अनेक प्रकारे । तब तहां जिन होये जगवासी कलबलाय थिरता. पन छारें। ऐसी अरति परीषह उपजत तहां धीर धैर्य्य उर धारें। ऐसे साधुनके उर अन्तर बसो निरन्तर नाम हमारे॥ ८ स्त्री परीषह-जे प्रधान केहर को पकड़ें पन्नग पकड़ पान से चम्पत । जिनकी तनक देख भी बांकी कोटिन सूर दीनता जम्पत ॥ ऐसे पुरुष पहाड़ उठावन प्रलय पवन त्रिय घेद पयम्पन। धन्य धन्य ते साधु साहसी मन सुमेरु जिनको नहिं कम्पत ॥ चर्या परीषह-चार हाथ परिमाण निरख पथ चलत दृष्टि इत उत नहीं ताने । कोमल पांव कठिन धरती पर धरत धीर वाधा नहिं माने। नाग तुरङ्ग पालकी चढ़ते ते स्वाद उर याद न आने यों मुनिराज सहें चर्या दुःख तव दृढ़ कर्म कुलाचल भानें ॥ १० आसन परीषह-गुफा मसान शैल तरु कोटर निवसे जहाँ शुद्ध भू हेरें । परिमित काल रहें निश्चल तन बारबार आसन नहिं फेरें । मानुषदेव अचेतन पशु कृत वैठे बिपत आन जब धेरै ठौरन त भनें थिरता पद ते गुरु सदा बसो उर मेरे ॥ ११ शयन परीषह-जे महान् सोनेके महलन सुन्दर सेज सोय सुख जोवे । ते अब अचल अङ्ग एकासन कोमल कठिन भूमिपर सोचे॥ पाहन खण्ड कठोर कांकरी गड़त कोर कायर नहीं होवे। ऐसी सयन परीषह जीतत ते मुनि कर्म कालिमा धोवें। १२ आक्रोश परीषह-जगत् जीषयावन्त चराचर सबके हित
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy