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________________ JAWA - ~ ~ २५८ जिनवाणी संग्रह। शिर सोहना ॥ मणि जटित सिंहासन कनकमय लोकत्रय मन मोहना ॥ ये प्रातिहार्य मिलाय आठों जोड़ गुण ब्यालीस जी। ये ही जनावत प्रगट तुम को तीन जग के ईशजी ॥ दर्शन झान अनन्त विर्षे षट द्रव्य से । गुण पर्याय अनन्त लखें दृष्टि सर्वके । राजत सुक्ख अनन्तानन्त केवल धनी। अनन्त चतुष्टय जोड़ सकल छालिस गुणी। गणिये सुछालिस गुण विराजित देव अरिहंत सो लखो। गुण और कबलों कहों कैसे बुद्धि थोरी मैं रखों ॥ इन्द्र गणधर आदि जिन गुण गणत पार न पाइयो । गणि दोष अष्टादश जिनेश्वर मूल से जु नशाइयो । क्षुधा तृषा मद मोह जरा चिन्ता टरी। आरति विस्मय रोग शोक निद्रा हरो॥ स्वेद खेद भय रोग हनो पुन द्वेषजी। जान्म मरण का दुख नहीं लवलेश जो ॥ लवलेश इनका नाहिं यासे मोहि तारण तरणनी। भव दुख निवारण सुक्ख कारण मोहि अशरण शरणजी ॥ यासे सदा ही प्रात उठ छालीस गुण नित ध्याइये। उर नेम धर पद पञ्च में अरिहन्त मङ्गल गाइये ॥ ७॥ (१३) श्रीसिद्ध परमेष्टी मंगल। तिहू जग शिरतन बात बलय में जानियो । प्रारम्भ नभ क्षेत्र तहां उर आनियो॥ मनुज क्षेत्र सम क्षेत्र महा अद्भुत सही। हाटक मणिमय मुक्ति शिला तासम कही। कही तिहूं जग शीर्ष ऊपर क्षत्रके आकार जी। मध्य भाग योजन आठ मोटी अन्त अनुक्रम ढारजी । तापर विराजत सिद्ध शिव थल काय बिन बिन रूपजी। लन पूर्व तन से ऊन किंचित आत्मरूप अनूप जी ॥१॥
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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