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________________ विनतो। २४५ तत्व प्रकाशियो ॥ अव भई कमला किंकरी मुझ उभय भव निर्मल ठये। दुख जरो दुर्गति वास निवरो आज नव मंगल भयो ॥ २॥ मनहरण मूरति हेर प्रभुकी कौन उपमा ल्याइये । मम सकल तनके रोम हुलसे हर्ष और न पाइये । कल्याण काल प्रत्यक्ष प्रभुको लख जो सुर नर घने । तिस समयकी आनन्द महिमा कहत क्यों मुखसे वने ॥ ३ ॥ भर नयन निरखे नाथ तुमको और बांछा ना रहो , मम सब मनोरथ भये पूरण रङ्क मानो निधि लही । अब होहु भवभव भक्ति तुम्हरी कृपा ऐसी कीजिये। कर जोर भूधरदास विनवे यही वर मोहि दोजिये ॥ ४॥ इति ॥ (४) विनती भूधरदास कृत। अहो जगत गुरु देव सुनिये अर्ज हमारी। तुम प्रभु दीन दयालु मैं दुखिया ससारी ॥१॥ इस भव वनके माहि काल अनादि गमायो । भ्रमत चतुति मांहि सुन्व नहिं दुग्ब बहु पायो ॥२॥कर्म महा रिपु जार ये कळकान करेंजी। मन माने दुग्व देह काहसे नाहि डर जा ॥ ३ ॥ कवह इतर निगोद कबहुं कि नर्क दिखावे । सुर नर पशुगति मांहि बहु विधि नाच नचावं ॥४॥ प्रभु इनको परसग भव भव मांहि बुरी जी। जा दुख देख देव तुमसे नाहि दुरो जी ॥५॥एक जन्मका बात कहि न सका सब स्वामी । तुम अनन्त पर्याय जानत अन्तर यामी ॥ ६ ॥ मैं तो एक अनाथ ये मिल दुष्ट घनेर किया बहुत बेहाल सुनिये साहब मेरे ॥ ७॥ ज्ञान महानिधि लूट रङ्क निवल कर डारी ! इन ही मो तुम मांहि हे प्रभु अन्तर पारो ॥८॥ पाप पुण्य मिल दोय पायन बेरी डारी। तन कारागृह मांहि मूद दियो दुख भारी॥॥ इनको नेक विगार मैं कुछ नाहि करोजी
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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