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________________ * अरहंतपासाकेवलो * I हंता | इंतअ वरन पर जब पासा । तो सुनि अर्थ प्रतच्छ प्रकासा ॥ तें चितमें परसंपति चाहै । लोभ बढ्यो ताहि देखत का है ॥ १३०॥ तोष किये धन प्रापति होई, वेद पुरान पुकारत योई ॥ लोभ निवारि करो सब चिंतं । भावि जु होय सो होहि मितं ॥ ॥ १३१ ॥ जाय विती जब कछु काला । अर्थ तुलाभ तबै तुव भाला ॥ यामै संशय रंच न आनो । भापत श्रीअरहंत प्रमानो | २२१ हंतर । हंतर यो दरशावत आई। तो मनमें परवित्त बसाई ॥ चिंतत है सो प्रापति होई । ताकरि संपति आनि मिलोई ॥ १३३ ॥ अर्थ समागम कीर्ति अनिद्या । प्रापति है तोहि सुन्दर विद्या ॥ जो कछु र द्रव्य गंवायौ । सो सब आनि मिले मन भायौ 11 ॥ १३४ ॥ जो तुम कारज चेतहु प्यारे । सो सब होई सिद्धि तुमारे || यों जिय जानि तजो दुचिताई । सेवहु जाई ॥ १३५ ॥ श्रीपरमातम हं हं । हैं जुगके मधि होइ तकारं । तासु सुनो फल पूछन हारं ॥ तो मनमें विपरीत लसो है । चोरि जूथकी ताप वसी है ॥ ॥ १३६ ॥ ता करिके दुःख पाप सहे हो । लोकविषै अपकीर्ति लहे हो ॥ नास भयो जसरास तुमारो । यों लघु सीख सुनो उर धारो ॥ १३७ ॥ अन्य कछू करतव्य विचारो । तामहं वांछित सिद्ध तुमारो ॥ अर्थ बढ़े धन धर्म बढ़ाई । यों दरसावत श्रीगुरु भाई ॥ १३८ ॥ हंतत । तत भाषेत उत्तम तोही । जो मन वांछडु होवहि सोही || मंगल धाम मिले धन धान्यं । जाडु विदेश तहां बहु
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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