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________________ २०८ ___ * जिनवाणो संग्रह कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे, . लाखों वर्षों तक जीऊ या मृत्यु आज हो आजावे । अथवा कोई कैसा ही भय या लालच देने आवे, तो भी न्याय मार्गसे मेरा कभी न पद डिगने पावे ॥७॥ होकर सुखमें मन न फूले, दुखमें कभी न घपरावे, पवत-नदी-श्मशान-भयानक अटपीसे नहि भय खावे। रहे अडोल-अकंप निरन्तर, यह मन, गुढ़तर बन जावे, इष्टवियोग-अनिष्टयोगमें सहनशीलता दिखलावे ॥८॥ सुखी रहें सब जीव जगतके, कोई कभी न घबरावे, नैर-पाप अभिमान छोड़ जग नित्य नये मंगल गावे । घरघर चर्चा रहे धर्मकी, दुष्कृत दुष्कर हो जावें, शान-चरित उन्नत कर अपना मनुज-जन्मफल सब पावें ॥६॥ ईति-भोति व्यापे नहिं जगमें वृष्टि समय पर हुआ करे, धर्मनिष्ठ होकर राजा भो न्याय प्रजाका किया करें । रोग मरी दुर्भिक्ष न फैले, प्रजा शांतिसे जिया करे, परम अहिंसा-धर्म जगतमें, फेल सर्वहित किया करे ॥१०॥ फेले प्रम परस्पर जगमें मोह दूरपर रहा करे, अप्रिय कटुक-कठोर शब्द नहिं कोई मुखसे कहा करे । बनकर सब 'युग-वीर' हृदयसे देशोन्नति रत रहा करें, वस्तुरूप विवार खुशीसे सब दुख-संकट सहा करें ॥११॥
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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