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________________ ५८ ] [ जिनवरस्य नयचक्र भावार्थ :- जबतक कुछ भी पक्षपात (विकल्प) रहता है तबतव चित्त का क्षोभ नहीं मिटता। जब नयों का सब पक्षपात दूर हो जाता है तब वीतराग दशा होकर स्वरूप की श्रद्धा निर्विकल्प होती है, स्वरूप में प्रवृत्ति होती है और अतीन्द्रिय सुख का अनुभव होता है।" नयचक्र में कहा है कि नयों का प्रयोग विकल्पात्मक भूमिका में तत्त्वों का निर्णय करने के लिए ही होता है, आत्माराधना के समय नहीं अनुभव के काल में तो नय सम्बन्धी सर्व विकल्प विलय को प्राप्त हो जाते हैं। उक्त कथन करने वाली गाथा इसप्रकार है : "तच्चारणेसरणकाले समयं बज्झहि जुत्तिमग्गेरण। गो प्राहारणसमये पच्चक्खो प्रणुहवो जह्मा ।' तत्त्वान्वेषण काल में ही आत्मा युक्तिमार्ग से अर्थात् निश्चय व्यवहार नयों द्वारा जाना जाता है, परन्तु आत्मा की आराधना के समय वे विकल्प नहीं होते, क्योंकि उक्त समय तो आत्मा स्वयं प्रत्यक्ष ही है।" यहाँ यह बात बहुत सावधानी से समझने योग्य है कि यहाँ निश्चयनय का पक्ष छुड़ाया है, विकल्प छुड़ाया है; निश्चयनय का विषयभूत अर्थ नहीं व्यवहारनय का मात्र पक्ष ही नहीं, उसका विषयभूत अर्थ भी छोड़ने योग्य है; पर निश्चयनय का मात्र पक्ष या विकल्प छोड़ना है, उसके विषयभूत अर्थ को तो ग्रहण करना है । निश्चयनय के विषयभूत अर्थ को ग्रहण करने में बाधक जानकर ही निश्चयनय के विकल्प (पक्ष) को भी छुड़ाया है। ध्यान रहे शुद्धनय' शब्द का प्रयोग निश्चयनय के विकल्प के अर्थ में भी होता है और उसके विषयभूत अर्थ के अर्थ में भी। जहाँ निश्चयनय के पक्ष को छोड़ने की बात कही हो, समझना चाहिए कि उसके विकल्प को छुड़ाया जा रहा है; और जहाँ शुद्धनय के ग्रहण की बात कही हो वहाँ समझना चाहिए कि शुद्धनय के विषयभूत अर्थ की बात चल रही है । समयसार कलश १२२ से भी इस बात की पुष्टि होती है : "इदमेवात्र तात्पर्य हेयः शुद्धनयो न हि । नास्ति बंधस्तदत्यागात्तत्यागाबंध एव हि ॥ यहां यही तात्पर्य है कि शुद्धनय त्यागने योग्य नहीं है, क्योंकि उसके अत्याग से बंध नहीं होता और त्याग से बंध होता है।" द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा २६२ शुद्धनय निश्चयनय का ही एक भेद है, जिसकी चर्चा प्रागे नय के भेदों में की जाएगी।
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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