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________________ ४२ ] [ जिनवरस्य नयचक्रम् निश्चय के कथन का वास्तविक मर्म न समझकर उसके द्वारा व्यवहार का निषेध सुनकर कोई व्यवहार के विषय की सत्ता का भी प्रभाव न मानले- इस दृष्टि से यद्यपि व्यवहार को भी कचित् सत्यार्थ कहा गया है, तथापि इसका प्राशय यह भी नहीं कि उसे निश्चय के समान ही सत्यार्थ मानकर उपादेय मान लें। उसकी जो वास्तविक स्थिति है, उसे स्वीकार करना चाहिए। इस सन्दर्भ में पं० टोडरमलजी ने साफ-साफ लिखा है : "व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्य को व उनके भावों को व कारणकार्यादिक को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है; सो ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व है; इसलिए उसका त्याग करना। तथा निश्चयनय उन्हीं को यथावत् निरूपण करता है, किसी को किसी में नहीं मिलाता है; सो ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है; इसलिए उसका श्रद्धान करना। यहां प्रश्न है कि यदि ऐसा है तो जिनमार्ग में दोनों नयों का ग्रहण करना कहा है, सो कैसे? समाधान :-जिनमार्ग में कहीं तो निश्चयनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे तो 'सत्यार्थ ऐसे ही है' - ऐसा जानना। तथा कहीं व्यवहारनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे ऐसे है नहीं; निमित्तादि की अपेक्षा उपचार किया है-ऐसा जानना । इसप्रकार जानने का नाम ही दोनों नयों का ग्रहण है। तथा दोनों नयों के व्याख्यान को समान जानकर 'ऐसे भी है, ऐसे भी है' - इसप्रकार भ्रमरूप प्रवर्तन से तो दोनों नयों का ग्रहण करना नहीं कहा है।" यदि जिनागम में दोनों नयों का एक-सा ही उपादेय कहना अभीष्ट होता तो फिर व्यवहारनय को मभूतार्थ कहने की क्या मावश्यकता थी? उसे प्रभूतार्थ कहने का प्रयोजन ही उससे सावधान करना रहा है। यहां एक प्रश्न संभव है कि यदि व्यवहार प्रभूतार्थ है, असत्यार्थ है, उसे निश्चय के समान मानना भ्रम है, उससे सावधान करने की भी भावश्यकता प्रतीत होती है; तो फिर जिनवाणी में उसका उल्लेख ही क्यों है ? इसलिए कि वह निश्चय का प्रतिपादक है, उसके बिना निश्चय का प्रतिपादन भी संभव नहीं है। १ मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २५१
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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