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________________ [ ३७ निश्चय और व्यवहार ] प्रब रही निश्चय को भूतार्थ-सत्यार्थ और व्यवहार को प्रभूतार्थप्रसत्यार्थ कहने वाली बात । सो इसका आशय यह नहीं है कि व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ है, उसका विषय है ही नहीं। उसके विषयभूत भेद मोर संयोग का भी अस्तित्व है, पर भेद व संयोग के आश्रय से आत्मा का अनुभव नहीं होता- इस अपेक्षा उसे अभूतार्थ कहा है। निश्चयनय का विषय अभेद-प्रखण्ड प्रात्मा है, उसके आश्रय से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है - यही कारण है कि उसे भूतार्थ कहा है। समयसार में कहा है : "भूवत्थमस्सिदो खलु सम्माविठ्ठी हवदि जीवो ॥११॥ जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है, वह जीव निश्चय से सम्यग्दृष्टि है।" इसके सम्बन्ध में श्री कानजी स्वामी के विचार भी दृष्टव्य हैं : "जिनवाणी स्याद्वादरूप है, अपेक्षा से कथन करनेवाली है। अतः जहाँ जो अपेक्षा हो वहाँ वह समझना चाहिए । प्रयोजगवश शुद्धनय को मुख्य करके सत्यार्थ कहा है और व्यवहार को गौरण करके असत्य कहा है। त्रिकाली, अभेद, शुद्धद्रव्य की दृष्टि करने से जीव को सम्यग्दर्शन होता है। इस प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए त्रिकालीद्रव्य को अभेद कहकर भूतार्थ कहा है और पर्याय का लक्ष्य छुड़ाने के लिए उसे गौण करके प्रसत्यार्थ कहा है। मात्मा प्रभेद, त्रिकाली, ध्रव है; उसकी दृष्टि करने पर भेद दिखाई नहीं देता, और भेददृष्टि में निर्विकल्पता नहीं होती; इसलिए प्रयोजनवश भेद को गौण करके असत्यार्थ कहा है। अनन्तकाल में जन्ममरण का अन्त करनेवाला बीजरूप सम्यग्दर्शन जीव को हुप्रा नहीं है । ऐसे सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने का प्रयोजन सिद्ध करना है, इससे शुद्धज्ञायक को मुख्य करके सत्यार्थ कहा है, और पर्याय तथा भेद को गौरण करके व्यवहार कहकर उसे असत्यार्थ कहा है।" "यहाँ कहते हैं कि त्रिकाली प्रभेददृष्टि में भेद दिखाई नहीं देते, इससे उसकी दृष्टि में भेद अविद्यमान, असत्यार्थ ही कहा जाता है। किन्तु ऐसा न समझना कि भेदरूप कोई वस्तु नहीं है, द्रव्य में गुण है ही नहीं, पर्याय है ही नहीं, भेद है ही नहीं। आत्मा में अनन्त गुण हैं, वे सब निर्मल हैं। दृष्टि के विषय में गुणों का भेद नहीं है, किन्तु अन्दर वस्तु में तो अनन्त गुरण हैं। भेद सर्वथा कोई वस्तु ही नहीं है, ऐसा माना जाय तो ' प्रवचन रत्नाकर भाग १ (हिन्दी), पृष्ठ १४८
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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