SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निश्चय और व्यवहार ] [ ३५ व्यवहारनय कहता है कि जीव और देह एक ही हैं और निश्चयनय कहता है कि जीव और देह कदापि एक नहीं हो सकते ।” यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि व्यवहार मात्र एक प्रखण्ड वस्तु में भेद ही नहीं करता, अपितु दो भिन्न-भिन्न वस्तुनों में प्रभेद भी स्थापित करता है । इसीप्रकार निश्चय मात्र एक प्रखण्ड वस्तु में भेदों का निषेध कर अखण्डता की ही स्थापना नहीं करता, अपितु दो भिन्न-भिन्न वस्तुनों में व्यवहार द्वारा प्रयोजनवश स्थापित एकता का खण्डन भी करता है । इस प्रकार निश्चयनय का कार्य पर से भिन्नत्व और निज में प्रभिन्नत्व स्थापित करना है तथा व्यवहार का कार्य प्रभेदवस्तु को भेद करके समझाने के साथ-साथ भिन्न-भिन्न वस्तुओं के संयोग व तन्निमित्तक संयोगीभावों का ज्ञान कराना है । यही कारण है कि निश्चयनय का कथन स्वाश्रित र व्यवहारनय का कथन पराश्रित होता है तथा निश्चयनय के कथन को सत्यार्थ सच्चा और व्यवहारनय के कथन को असत्यार्थ उपचरित कहा जाता है । उक्त उदाहरण में ही देखिए, जहाँ व्यवहारनय देह और आत्मा में एकत्व स्थापित करता दिखाई दे रहा है, वहीं निश्चयनय उससे स्पष्ट इन्कार कर रहा है । कह रहा है कि जीव और देह कदापि एक नहीं हो सकते । व्यवहार की दृष्टि संयोग पर है, और निश्चय की दृष्टि प्रसंयोगी तत्त्व पर । इसीप्रकार :"ववहारेणुवदिस्सविगारिणस्स चरित वंसरणं खाणं । रवि गाणं रण चरितं ण दंसणं जारण गो सुद्धो ॥' ज्ञानी ( आत्मा ) के चारित्र, दर्शन, ज्ञान यह तीन भाव व्यवहार से कहे जाते हैं; निश्चय से ज्ञान भी नहीं है, चारित्र भी नहीं है और दर्शन भी नहीं है; ज्ञानी तो एक शुद्ध ज्ञायक ही है ।" इसमें व्यवहारनय ने एक प्रखण्ड श्रात्मा को ज्ञान, दर्शन, चारित्र से भेद करके समझाया है, किन्तु निश्चय ने सब भेदों का निषेधकर श्रात्मा को प्रभेद ज्ञायक स्थापित किया है । समयसार, गाथा ७
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy