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________________ २० ] [ जिनवरस्य नयचक्रम् द्रव्य-पर्यायात्मक प्रात्मवस्तु के बारे में समझ लिया जाय तो सत्य नहीं होगा, क्योंकि द्रव्य-पर्यायात्मक आत्मवस्तु तो नित्यानित्यात्मक है। इसीलिए कहा है : "निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तुतेऽर्थकृत् ॥' . निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं और सापेक्ष नय सम्यक् व सार्थक होते हैं।" और भी"ते सावेक्खा सुरणया रिणखेक्खा ते वि दुण्णया होति ।। वे नय सापेक्ष हों तो सुनय होते हैं और निरपेक्ष हों तोदुनय होते हैं।" और भी अनेक शास्त्रों में नयों की विभिन्न परिभाषाएँ प्राप्त होती हैं। उन सबको यहाँ देने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उनमें वे ही बातें हैं जो कि समग्ररूप से उक्त कथनों में आ जाती हैं। उक्त समस्त कथनों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर निम्नानुसार तथ्य प्रतिफलित होते हैं :१. नय स्याद्वादरूप सम्यकश्रुतज्ञान के अंश हैं। २. नयों की प्रवृत्ति प्रमाण द्वारा जाने हुए पदार्थ के एक अंश में होती है। ३. अनन्त धर्मात्मक पदार्थ के कोई एक धर्म को अथवा परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्म-युगलों में से कोई एक धर्म को नय अपना विषय बनाता है। ४. वस्तु के किस धर्म को विषय बनाया जाये, यह ज्ञानी वक्ता के अभिप्राय पर निर्भर करता है। ५. नय ज्ञानी के ही होते हैं। ६. ज्ञानी वक्ता जिसको विषय बनाता है, उसे विवक्षित कहते हैं। ७. नयों के कथन में विवक्षित धर्म मुख्य होता है और अन्य धर्म गौरण रहते हैं। ८. नय गौण धर्मों का निराकरण नहीं करता, मात्र उनके सम्बन्ध में मौन रहता है। ६. नय ज्ञानात्मक भी होते हैं और वचनात्मक भी। १०. सापेक्ष नय ही सम्यकनय होते हैं, निरपेक्ष नहीं। ' जिन नयों के प्रयोग में उक्त तथ्य न पाये जावें, वस्तुतः वे नय नहीं हैं; नयाभास हैं। . प्राचार्य समन्तभद्र : प्राप्तमीमांसा, कारिका १०८ २ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २६६
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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