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________________ १७६ ] [ जिनवरस्य नयचक्रम् करो, बन सके तो दूसरों को भी पढ़ाओ, पढ़ने की प्रेरणा दो, इसे जन-जन तक पहुँचाओ, घर-घर में बसायो । स्वयं न कर सको तो यह काम करनेवालों को सहयोग अवश्य करो। वह भी न कर सको तो कम से कम इस भले काम की अनुमोदना ही करो। बुरी होनहार से यह भी संभव न हो तो कम से कम इसके विरुद्ध वातावरण तो मत बनाओ, इस काम में लगे लोगों की टाँग तो मत खींचो ! इसके अध्ययन मनन को निरर्थक तो मत बतायो, इसके विरुद्ध वातावरण तो मत बनाओ। यदि आप इस महान कार्य को नहीं कर सकते, करने के लिए लोगों को प्रेरणा नहीं दे सकते, तो कम से कम इस कार्य में लगे लोगों को निरुत्साहित तो मत करो, उनकी खिल्ली तो मत उडायो। आपका इतना सहयोग ही हमें पर्याप्त होगा। आशा है आप हमारी बात पर गम्भीरता से विचार करगे। यदि आपने हमारे दर्द को पहिचानने का यत्न किया और हमारी बात को गम्भीरता से लिया तो सहज ही यह समझ में आ जावेगा कि आखिर हम चाहते क्या है ? (१५) प्रश्न :-हमने जिनवाणी के अध्ययन मनन का निषेध कब किया है ? हमने तो इन नयो के चक्कर में न उलझने की बात कही थी ? उत्तर - भाई ! नयों के अध्ययन मनन को चक्कर मत कहो। यह चक्कर नहीं, चौरासी के चक्कर से उबरने का मार्ग है। जैसा कि पहले कहा भी जा चुका है कि समस्त जिनवाणी नयों की भाषा में निबद्ध है। अतः जिनवारणी का वास्तविक मार्म जानने के लिए नयों का स्वरूप भी जानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। जिनवाणी के व्याख्याकारों में आज जितने भी विवाद दिखाई देते हैं, वे सब नयों के सम्यकपरिज्ञान के अभाव में ही हैं। अतः जितना बन सके, नयों का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। यदि विशेष विस्तार में न जा सको तो सामान्य अभ्यास तो अवश्य ही करना चाहिए। अन्यथा जिनवाणी में गोता लगाने पर भी कुछ हाथ न आवेगा। इसके अध्ययन के जितने विस्तार और गहराई में जाप्रोगे, ज्ञान में उतनी ही निर्मलता बढ़ेगी; अतः बुद्धि, शक्ति और समय के अनुसार इसका गहराई से अध्ययन करने में कृपणता (कंजूसी) नहीं करना। सभी आत्मार्थी इनके सम्यक्अभ्यास-पूर्वक प्रात्मानुभूति प्राप्त करेंइस भावना से नयचक्र की निम्नाङ्कित गाथा का स्मरण करते/कराते हुए निश्चय-व्यवहार के विस्तार से विराम लेता हूँ :
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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