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________________ १७० ] [ जिनवरस्य नयचक्रम् असंगत नहीं है। ग्रन्थ चाहे अध्यात्म के हों अथवा आगम के, अधिकांश ग्रन्थों में आगम और अध्यात्म – दोनों प्रकार के नयों का प्रयोग प्राप्त होता है। उनके अध्ययन करते समय यदि एक ही प्रकार के नयों का ज्ञान हो तो अनेक भ्रम उत्पन्न हो सक्ते है । इमप्रकार के भ्रम उत्पन्न न हो, इसलिए दोनों प्रकार के व्यवहारों का एक साथ स्पष्टीकरण कर देना उचित प्रतीत हुग्रा । तथा दोनों प्रकार के नयो का स्पष्ट उल्लेख कर देने से किमी भी प्रकार के भ्रम उत्पन्न होने की संभावना स्वतः समाप्त हो जाती है। दोनो की तुलनात्मक स्थिति स्पष्ट करने के लिए भी यही अवसर उपयुक्त था, क्योंकि जब आगे चलकर आगम के नयों की विस्तृत चर्चा होगी, तब तक के लिए इस विषय को यों ही अस्पष्ट छोड़ देने से अनेक आशकाएँ अवश्य उत्पन्न हो सकती थी। () प्रश्न :- अध्यात्मनयों में निश्चयनय के दो ही प्रकार वताएँ हैं, जबकि आपने चार प्रकार के निश्चयनयों की चर्चा की है । क्या इसका भी कोई विशेष कारण है ? उत्तर :- अध्यात्मशास्त्रों में शुद्धनिश्चयनय और अशुद्धनिश्चयनय के साथ-साथ एकदेशशुद्धनिश्नयनय और परम शुद्धनिश्चयनय शब्दों का भी प्रयोग खुलकर हुआ है । अतः निश्चयनय के भेदों में उनका उल्लेख आवश्यक था, अन्यथा भ्रम उत्पन्न हो सकते थे। ये दोनों भेद शुद्धनिश्चयनय के ही है, अतः इन्हे समग्र रूप मे शुद्धनिश्चयनय भी कहा जा सकता है। इसलिए निश्चयनय के दो या चार भेद कहने में कोई विरोध या मतभेद की बात नही है। इनका स्पष्टीकरण यथास्थान बहुत विस्तार से किया जा चुका है, अतः उसे यहाँ दुहराने की आवश्यकता नहीं है।
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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