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________________ १५४ ] [ जिनवरस्य नयचक्रम् सम्यग्ज्ञान का अभाव होने से अधिकतर लोग ऐसा व्यवहार करते हैं कि जो यह मनुष्य आदि के शरीररूप है, वह जीव है; क्योंकि वह जीव से अभिन्न है। किन्तु यह व्यवहार सिद्धान्तविरुद्ध होने से अव्यवहार ही है। यह व्यवहार सिद्धान्तविरुद्ध है - यह बात प्रसिद्ध भी नही है, क्योंकि शरीर और जीव भिन्न-भिन्न धर्मी है। ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है कि शरीर और जीव के एकक्षेत्रावगाही होने से उनमें एकत्व का व्यवहार हो जायगा, क्योंकि सब द्रव्यों में एक क्षेत्रावगाहपना पाया जाने से अतिव्याप्ति नाम का दोष प्रा जायगा। बन्ध्य-बंधकभाव होने से जीव को शरीररूप कहने में कोई आपत्ति नही है - ऐसी आशंका भी नही करनी चाहिए, क्योंकि जब वे दोनों नियम से अनेक है, तब उनका बंध मानना स्वतः प्रसिद्ध है। जीव और शरीर में निमित्त-नैमित्तिकभाव मानकर उक्त कथन को ठीक मानने का प्रयत्न करना भी ठीक नही है, क्योंकि जो स्वत: अथवा स्वयं परिणमनशील है, उसे निमित्तपने से क्या लाभ है अर्थात् कुछ भी लाभ नही है। इसप्रकार जीव और शरीर को एक बतानेवाला अर्थात् शरीर को जीव कहनेवाला नय नय नही, नयाभास ही है।" दूसरे नयाभास का कथन इसप्रकार है :"अपरोऽपि नयाभासो भवति यथा मूर्तस्य तस्य सतः । कर्ता भोक्ता जीवः स्यादपि नोकर्मकर्मकृतेः ॥५७२॥ नाभासत्वमसिद्धं स्यादपसिद्धान्तो नयस्यास्य । सदनेकत्वे सति किल गुरणसंक्रान्तिः कुतः प्रमाणाद्वा ॥५७३॥ गुणसंक्रान्तिमृते यदि कर्ता स्यात् कर्मरणश्च भोक्तास्मा। सर्वस्य सर्वसङ्करदोषः स्यात् सर्वशून्यदोषश्च ॥५७४॥ प्रस्त्यत्र भ्रमहेतु जीवस्याशुद्धपरगति प्राप्य । कर्मत्वं परिणमते स्वयमपि मूर्तिमद्यतो द्रव्यम् ॥५७५ ॥ इदमत्र समाधानं कर्ता य कोऽपि सः स्वभावस्य ।। परभावस्य न कर्ता भोक्ता वा तन्निमित्तमात्रेऽपि ॥५७६॥' १ पंचाध्यायी, प्र० १, श्लोक ५७२-५७६
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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