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________________ १४४ ] [ जिनवरस्य नयचक्रम् कारणमन्तीना द्रव्यस्य विभावभावशक्तिः स्यात् । सा भवति सहजसिद्धा केवलमिह जीवपुद्गलयोः ॥५३१॥ फलमागन्तुकभावादुपाधिमात्रं विहाय यावदिह । शेषस्तच्छुद्धगुणः स्यादिति मत्वा सुदृष्टिरिह कश्चित् ॥५३२॥ पत्रापि च संदृष्टिः परगुरणयोगाच्च पाण्डरः कनकः । हित्वा परगुरणयोगं स एक शुद्धोऽनुभूयते कैश्चित् ॥५३३॥' अन्यद्रव्य के गुणों की बलपूर्वक अन्य द्रव्य में संयोजना करना असद्भूतव्यवहारनय है। उदाहरणार्थ वर्णादिवाले मूर्त्तद्रव्य का कर्म एक भेद है, अतः वह भी मत है। उसके संयोग से क्रोधादि यद्यपि मृत हैं, तो भी उन्हें जीव में हुए कहना असद्भूतव्यवहारनय का उदाहरण है। इस नय की प्रतीति का फल यह है कि जितने भी आगन्तुक भाव हैं, उनमें से उपाधि का त्याग कर देने पर जो शेष बचता है, वही उस वस्तु का शुद्धगुरण है । ऐसा माननेवाला पुरुष ही सम्यग्दृष्टि है। उदाहरणार्थ सोना दूसरे पदार्थ के गुण के संबंध से कुछ सफेद-सा प्रतीत होता है, परन्तु जब उसमें से परवस्तु के गुणों का संबंध छूट जाता है, तब वही सोना शुद्धरूप से अनुभव में आने लगता है।" उक्त कथन में पंचाध्यायीकार ने सद्भुत और असद्भूतव्यवहारनयों के स्वरूप एवं विषयवस्तु का जिसप्रकार स्पष्टीकरण किया है, उससे यह बात स्पष्ट होती है कि उनके मतानुसार सद्भूतव्यवहारनय वस्तु के असाधारणगुरण के आधार पर वस्तु को परवस्तु से भिन्न स्थापित करता है। उनके अनुसार इस नय का प्रयोजन भी परवस्तु से भिन्नता की प्रतीतिमात्र है। उनका स्पष्ट कहना है कि यह नय अखण्डवस्तु में भेद करके वस्तुस्वरूप को स्पष्ट करनेवाले भेद का अभिव्यंजक नहीं है, अपितु परसे भिन्नता बतानेवाला ही है। यद्यपि असद्भूतव्यवहारनय की परिभाषा तो यहाँ भी बहुत-कुछ अन्य ग्रंथों के अनुसार ही दी गई है, तथापि यहाँ क्रोधादि को जीवका कहना- यह असद्भूतव्यवहारनय का विषय बताया गया है, जबकि अन्यत्र क्रोधादि को जीव का बताना, सदभूतव्यवहारनय के भेदों में लिया जाता है। १ पंचाध्यायी, म. १, श्लोक ५२६-५३३
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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