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________________ ११६ ] [ जिनवरस्य नयचक्रम् और सत्यार्थ कहकर उपादेय बताया जाता है और भेदग्राही व्यवहारनय को अभूतार्थ और असत्यार्थं कहकर हेय कहा जाता है । क्योंकि अभेदग्राही निश्चयनय द्रव्य की अखण्डता का पोषक होने से एकता को मजबूत करता है, अनेकता के विकल्पों का शमन करता है और प्रात्मानुभूति की प्राप्ति का साक्षात् हेतु बनता है । जबकि भेदग्राही व्यवहारनय विकल्पों में ही उलझाये रखता है । प्रत्येक देश की सर्वोच्चसत्ता का मूल कार्य देश की प्रान्तरिक अखण्डता कायम रखकर, अन्य देशों से अपने देश की सीमा को सुरक्षित रखना होता है । देश की सुरक्षा का अर्थ ही यह होता है कि अन्य देशों का हस्तक्षेप अपने देश में नही होने देना तथा अपने देश की अखण्डता कायम रखना । सर्वोच्चमत्ताधारी, चाहे वह प्रधानमंत्री हो या राष्ट्रपति; उनका यह कर्त्तव्य है कि वे इस मर्यादा की सुरक्षा करे । प्रत्येक द्रव्य की सर्वोच्चसत्ता वही है, जो द्रव्य की आन्तरिक अखण्डता कायम रखकर अन्य द्रव्यों से उसकी पृथक्ता स्थापित रखे । निज द्रव्य मे अन्य द्रव्यो के हस्तक्षेप का निषेध एव अपनी प्रान्तरिक अखण्डता अर्थात् गुरणभेदादि का निषेध ही जिसका कार्य है, वह निश्चयनय ही वस्तुतः नयाधिराज है । यह नयाधिराज ही द्रव्य को मच्ची सुरक्षा और स्वतन्त्रता प्रदान करता है । प्रत्येक देश की पर देश से भिन्नता और अपने मे प्रभिन्नता, प्रभेदता, अखण्डता ही सच्ची सुरक्षा है । उसीप्रकार प्रत्येक द्रव्य की पर से भिन्नता और अपने से अभिन्नता, अखण्डता, प्रभेदता ही सच्ची मुरक्षा है, शुद्धता है । जिसप्रकार किसी देश की उक्त सुरक्षा को कायम रखते हुए भी अभेद, अखण्ड देश को सुव्यवस्थित व्यवस्था बनाये रखने की दृष्टि से खण्डों में विभाजित करना पड़ता है, तथा अन्य देशो से भी आवश्यक सम्बन्ध बनाने पडते है । तदर्थं सर्वोच्चसत्ता प्रशासन चलाने के लिए प्रशासनिक विभाग बनाती है । जैसे- गृहविभाग और विदेशविभाग श्रादि । गृहविभाग प्रान्तरिक प्रभेद में भेद डालकर अपनी व्यवस्था बनाता है और विदेशविभाग जिनसे देश का कोई प्रान्तरिक सम्बन्ध नही, उन देशों से भी व्यावहारिक सम्बन्ध स्थापित करता है । उसीप्रकार द्रव्य के मूलस्वरूप अर्थात् पर से भिन्नता और अपने से अभिन्नता - अखण्डता को कायम रखकर विश्वव्यवस्था को समझने
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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