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________________ व्यवहारनय : भेद-प्रभेद निश्चय-व्यवहार का स्वरूप स्पष्ट करते समय यह बात स्पष्ट के जा चुकी है कि व्यवहारनय का कार्य एक अखण्ड वस्तु में भेद करके तथा दो भिन्न वस्तुओं में अभेद करके वस्तुस्वरूप को स्पष्ट करना है । ___व्यवहारनय की इसी विशेषता को लक्ष्य में रखकर उसके दो भेद किये जाते है : १. सद्भूतव्यवहाग्नय २. असद्भूतव्यवहारनय इस सन्दर्भ में पालापपद्धति का निम्नकथन दृष्टव्य है : "व्यवहारो द्विविधः सदभूतव्यवहारोऽसद्भूतव्यवहारश्च । तत्रैक वस्तुविषयः सद्भूतव्यवहारः, भिन्नवस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहारः ।' ___ व्यवहारनय के दो भेद है - सद्भूतव्यवहार और असद्भूतव्यवहार उनमें से एक ही वस्तु में भेदव्यवहार करनेवाला सद्भूतव्यवहारनय है और भिन्न वस्तुओं में अभेदव्यवहार करनेवाला असद्भूतव्यवहारनय है।" सद्भूतव्यवहारनय अनन्तधर्मात्मक एक अखण्डवस्तु मे गुणो, धर्मो स्वभावों व पर्यायों के आधार पर भेद करता है अर्थात् भेद करके वस्तु स्वरूप को स्पष्ट करता है। वे गुरण, धर्म आदि सद्भूत है अर्थात् उम् वस्तु में विद्यमान है; उस वस्तु के ही गुण-धर्म है, जिसके कि यह नय बत रहा है - इसकारण तो इसे सद्भूत कहा जाता है; अखण्डवस्तु मे गुण धर्मादि के आधार पर भेद उत्पन्न करता है - इसकारण व्यवहार कह जाता है; और भेदाभेदरूप वस्तु के भेदांश को ग्रहण करनेवाला होने से नय कहा जाता है। इसप्रकार इसकी 'सद्भूतव्यवहारनय' संज्ञा सार्थक है । असद्भूतव्यवहारनय भिन्न द्रव्यो में संयोग-सम्बन्ध आदि के आधार पर अभेद बताकर वस्तुस्वरूप को स्पष्ट करता है, जबकि वस्तुत: भिक द्रव्यों में अभेद वस्तुगत नहीं है - इसकारण इस नय को असद्भूतव्यवहार नय कहते हैं। 'पालापपद्धति, पृष्ठ २२८
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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