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________________ ९४ ] [ जिनवरस्य नय इसप्रकार हम देखते हैं कि कथंचित् भी निषेध नहीं करने से वे आपत्तियाँ खडी हो जाती हैं, जो सर्वथा निषेध करने से होती थी। (१२) प्रश्न :- कथंचित् भी निषेध न करने से त्रिकालीतत्त्व द का विषय क्यों नहीं बन पावेगा और सर्वथा निषेध से होनेवाली आपत्ति कैसे खड़ी हो जावेंगी? उत्तर :- भाई ! यह बात तो नौवें प्रश्न के उत्तर में विस्तार स्पष्ट की जा चुकी है कि एकदेशशुद्धनिश्चयनय अशुद्धनिश्चयनय का र शुद्धनिश्चयनय एकदेशशुद्धनिश्चयनय का निषेध करता हुआ उदित है है । इसीप्रकार परमशुद्धनिश्चयनय भी शुद्धनिश्चयनय का अभाव कर हुआ उदय को प्राप्त होता है और अन्त में स्वयं निभृत हो जाता है, आत्मसाक्षात्कार होता है, प्रात्मानुभूति प्रगट होती है। अतः यदि हम उन्हें कथंचित भी निषेध्य स्वीकार न करे तोf प्रात्मानुभूति कैसे प्रगट होगी? आत्मानभूति प्रगट होने की प्रक्रिया उत्तरोत्तर निषेध की प्रक्रिया ही है । दृष्टि का विषय त्रिकालीशुद्धात्मतत्त्व तो आत्मानुभूति में ही प्र होता है। अतः जब उत्तरोत्तर निषेध की प्रक्रिया से प्रगट होनेवा आत्मानुभूति ही नही होगी तो फिर वह त्रिकालीपरमतत्त्व तो हि ही रहेगा। तथा जब आत्मानुभूति ही प्रगट नही होगी तो मोक्षमार्ग भी न बनेगा, क्योंकि मोक्षमार्ग का प्रारंभ नो आत्मानुभूति की दशा में ही हो है । जव मोक्षमार्ग ही नही बनेगा तो मोक्ष कहाँ से होगा? __इसप्रकार यह निश्चित है कि कथंचित भी निषेध नही करने से मभी आपत्तियाँ खडी हो जावेंगी, जो सर्वथा निषेध करने से होती थी। निश्चयनय के उक्त भेद न तो सर्वथा निषेध्य है और न मर्व अनिषेध्य । प्रत्येक नय अपने-अपने प्रयोजन की सिद्धि करनेवाला होने म्वस्थान मे निषेध करने योग्य नही है। प्रयोजन की सिद्धि हो जाने । उसकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है, अतः उसका निषेध करना अनिव हो जाता है। यदि उसका निषेध न करे तो उत्तरोत्तर विकास की प्रक्रि अवरुद्ध हो जाती है। अतः तत्संबंधी प्रयोजन की सिद्धि हो जाने पर, प्रा बढ़ने के लिए -आगे के प्रयोजन की सिद्धि के लिए पूर्वकथित नय निषेध एवं आगे के नय का प्रतिपादन इष्ट हो जाता है।
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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