SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनवाणी कोई भी कर सके ऐसा प्रायश्चित्तवाद (Doctrine of vicarious Atonement) प्रचलित है उससे प्राचीन भारत अपरिचित था, ऐसा ‘कदाचित् कहा जा सके । सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्रके प्रभावसे पुराने-प्राक्तन कमाके फलको रोका जा सकता है तथा नवीन काका एवं उनके साथ सम्बन्ध रखनेवाले दुःखमय जन्म मरणादिका भी निवारण हो सकता है - यह हमारा भारतीय मत है। प्राक्तन कर्मामें एक अव्य शक्ति होती है, इस वातसे किसीने इन्कार नहीं किया। कर्मका फल इतना दुरतिक्रमणीय है कि केवली भगवानको भी अपने पूर्वकृत कर्म भोगनेके लिये कुछ समय तक शरीररूपी कारागारमें रहना पड़ता है। इस आशयके शास्त्रोंमें कितने ही उल्लेख है । एक वेदपंथी कवि शिहलन मिश्र कहते है आकाशमुत्पततु गच्छतु वा दिगन्त मम्मोनिधिं विशतु तिष्ठतु वा यथेष्टम् । जन्मान्तराजितशुभाशुभकन्नराणां छायेव न त्यजति फर्मफलानुवन्धि । -शान्तिशतकम् , ८२ । आप उड़कर आकाशमें चले जावें, दिशाओके उस पार पहुंच जावें, समुद्रके तलमें घुस वैठे या चाहे जहां चले जावें, परन्तु जन्मान्तरमें जो शुभाशुभ कर्म किये हैं उनके फल तो छायाके समान साथ ही साथ रहेगे, वे तुम्हे कदापि न छोड़ेंगे। महात्मा बुद्धने भी कहा है-- न अन्तलिक्खे न लमुहमध्झे न पवता विवरं पयिस्ता
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy