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________________ ईश्वर क्या है? है। मोहनीय कर्मके प्रतापसे विशुद्ध श्रद्धा-सम्यक्त्व, चारित्र-गुण विकसित नहीं होते और अन्तराय कर्म आत्माके स्वाभाविक वीर्यादिको विकसित नहीं होने देता। अघाति कर्मके भी चार भेद है : (१) आयुः, (२) नाम, (३) गोत्र और (४) वेदनीय । आयुः कर्म प्राणिकी आयुका निर्माण करता है। नामकर्मके योगसे प्राणी विविध शरीरादि प्राप्त करता है। गोत्र कर्मके योगसे मनुष्य उच्च या नीच गोत्रको प्राप्त होता है। और वेदनीय कर्मके प्रतापसे जीव सुखदुःखादि सामग्री द्वारा आकुल्ता प्राप्त करके आत्माके अन्याबाध गुणसे विमुख रहता है। जैनाचार्य कहते है कि, जब जीव मुक्तिसाधनाके मार्गमें जाता है, घोर तपश्चर्या करता है, तब परिणाममें चार घाति कमौका नाश होकर उसे सर्वज्ञता प्राप्त होती है। सर्वज्ञताका दूसरा नाम केवलज्ञान है। केवली या केवलज्ञानीको जीवन्मुक्त भी कह सकते है । जीवन्मुक्त सर्वज्ञके दो प्रकार है : सामान्य केवली और तीर्थङ्कर । जीवन्मुक्त पुरुष शरीरधारी होने पर भी सर्वज्ञ अथवा केवली होता है। सामान्य केवली महापुरुष अपनी मुक्ति साधते हैं, परन्तु तीर्थकर नामवाले पुरुषसिंह अपनी मुक्ति साधनेके अतिरिक्त संसारी जीवोंको भी मुक्तिका-अशेष दुःखक्लेशादिसे छुटकारा पानेका-मार्ग दिखलाते है। इनके उपदेशसे संसारी जीव तर जाते हैं, इसीसे वे तीर्थत्वरूप माने जाते हैं। जैन धर्मक ग्रन्थ तीर्थकर भगवानके स्तुति-स्तवनोंसे भरे है। तीर्थकर सद्धर्मका उपदेश करते है । वे जगत्पूज्य हैं, अर्हत् है। साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूपी चतुर्विध संघकी स्थापना भी
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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