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________________ ईश्वर क्या है? वचन ही प्रमाणरूप हैं। अब यदि यह कहा जाय कि सर्वज्ञ-प्रतिपादक आगम अनित्य है तो दूसरा प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि इन अनित्य आगमोंका प्रणेता कौन है ? यदि इन आगमोंका प्रणेता सर्वज्ञ ही हो तो ये प्रमाण अन्योन्याश्रय दोषसे दूषित हो जाते है । सर्वज्ञने आगमरचना की और इन्हीं आगमोको सर्पज्ञके प्रमाणस्वरूप माना जाय, यह अन्योन्याश्रय दोष है। और यदि यह कहो कि किसी असर्वज्ञ पुरुषने आगम रचना की है तो फिर इसका कुछ मूल्य ही नहीं रहता। निष्कर्ष यह कि सर्वज्ञकी सिद्धि न तो आगम ही से होती है और न उपमान ही से सर्वज्ञता सिद्ध होती है, क्यो कि सादृश्य ज्ञानसे ही उपमानकी उत्पत्ति होती है । और सर्वज्ञके समान अन्य कोई वस्तु दिखलाई नहीं देती अत एव उपमानके द्वारा सर्वज्ञकी सिद्धि होना असम्भव है। अर्थापत्तिसे भी सर्वज्ञता सिद्ध नहीं होती, क्यो कि सर्वज्ञको स्वीकार न करनेसे किसी ज्ञात पथार्थको अस्वीकार करना नहीं पड़ता। . यह तर्क करनेकी भी आवश्यकता नहीं है कि, यदि सर्वज्ञता न हो तो फिर बुद्ध और मनुके समान धर्मोपदेशक कैसे हो सकते है ? इसके उत्तरमें मीमांसक कहते है कि, वेद ही सब धौंका मूल है। बुद्धने धर्माधर्मका उपदेश दिया सही, परन्तु वह अवेदज्ञ था इस लिये उस उपदेशमें व्यामोहके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इस उपदेशकत्वसे उसका सर्वज्ञ होना सिद्ध नहीं होता। मनुने धर्माधर्म विषयक उपदेश किया है, परन्तु वह सर्वज्ञ नहीं था। वुद्ध और मनुके उपदेगमें सर्वज्ञताकी कोई बात नहीं दिखलाई देती। कोई ऐसा कहने चाहे किवर्तमान कालमें सर्वज्ञताका प्रतिपादन न
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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