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________________ ३६ , जिनवाणी भी इन्कार करता है । यह बात कौन मानेगा ? जगतके इतने पदार्थोंमें किसी प्रकारका रूपभेद नहीं है, सब ही किसी एक महासत्ता (Pure Being ) के विकासमात्र हैं, सब एक है - यह सिद्धान्त क्या प्रत्यक्षविरुद्ध सा प्रतीत नहीं होता ? जीवामें कुछ भेद न हो। वस्तुतः समस्त जीव किसी एक महासत्ताके विकासमात्र हो तो फिर 'स्वाधीन इच्छा' ( Freedom of will ) तो कुछ वस्तुहीन रही? तब तो जीव जो अच्छे बुरे कर्म करेगा, उसके लिये कोई उत्तरदाता हो न होगा । और जब पाप पुण्य ही न रहा तो फिर मुक्तिकी बात ही क्या की जाय ? ____प्राचीन कालमे भारतमे जैनाचार्योंने ब्रह्माद्वैतवादियोको कुछ ऐसे ही उत्कट उत्तर दिये है। वे कहते है- "यदि आप जगतको एकान्त असत् अथवा काल्पनिक सत्ताके समान मानते हों तो फिर आपकी अपनी सत्ता भी नहीं रहती। आप जो कहते है कि जगत् सत् पदार्थ जैसा केवल दीखता ही है, वास्तव में नहीं है, इसके यथेष्ट प्रमाण आप नहीं दे सकते, अत एव आपका कहना माना नहीं जा सकता। जगत् सत् है यह बात तो प्रत्यक्ष ज्ञानसे भी सिद्ध होती है। जगतकी अनेकानेक वस्तुएं और विविधता आप प्रत्यक्ष आंखोसे देख सकते है। आंखसे दीखने पर भी न माना जाय, यह वात आप किस आधारो पर कहते हैं ? ब्रह्मरूप आत्मा यदि सत् पदार्थ हो तो ब्रह्मके समान सद्रूप प्रतीयमान भावसमूहको असत् क्यों माने ?" पाश्चात्य दार्शनिकोंक समान जैनाचार्य भी कहते थे कि, यदि जीवकी विविधता स्वीकार न करें तो फिर मुक्तिका प्रश्न हल नहीं हो सकता । क्यों कि
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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