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________________ जिनवाणी ૨૮ मर्यादाके भीतर व्यवस्थित रूपसे विचरते है। आपको कहीं भी गड़बड़ दिखलाई न देगी। अकाश ही क्यों, पृथ्वी के गर्भ में गहराई में जाकर - देखिये, एकके ऊपर दूसरी, दूसरे पर तीसरी, इस प्रकार कितनी तह ऊपर नीचे बिछी हुई हैं ? यह पृथ्वी एक समय भाफके पिंडके समान थी। इस पर न जाने कितने संस्कार होनेके पश्चात् यह हमारे जैसे मनुष्यों और अन्य असंख्य प्राणियां के रहने योग्य बनी है । वृक्ष, पत्र, फूल, फलाटिका विकास देखिये इस क्रमविसाकी अविच्छिन्न धारामें आपको किसी परम बुद्विशालीका हाथ प्रतीत नहीं होता ? और सब बातें एक ओर रहने दीजिये, केवल गरीरके विषयमें ही विचार कीजिये । पशु-पक्षियोंके अंग प्रत्यंगोकी रचनामें कितनी चातुरी और दूरदृष्टिसे काम लिया गया है ! मनुष्योंके अङ्गोपाङ्गको रचना कितनी अद्भुत है ! पाश्चात्य स्रष्टावादी लोग इस प्रकार अनेकों प्रमाण देकर कहते हैं कि, एक बुद्धिमान कर्ता अवश्य ही होना चाहिये। वही ईश्वर है। उसकी अनन्त करुणा जगन्मृष्टि रूपमें ही प्रकाशित हो रही है । प्राचीन कालमें भारत में भी कर्तावाढके पक्षमें लगभग ऐसी ही युक्तियां दी जाती थीं । नैयाविक इस बादके बड़े परिपोषक माने जाते है । शंकरमिश्र कहते है एव कर्मापि कार्यमपीश्वरे लिहं तथाहि । क्षित्यादिकं सकर्तृकं कार्यत्वात् घटवदिति ॥ 7 4 1 : अर्थात् घडा एक, कार्य-पदार्थ है, कुम्भकार इसका कर्ता है । इसी प्रकार पृथ्वी आदि कार्य है । इनका भी एक कर्ता- ईश्वर है । न्याय-मतको व्याख्या करते हुवे एक आचार्य कहते हैं-"
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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