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________________ जैन दर्शनका स्थान गया है और यहो वास्तविक जीवन है। चौद्ध दर्शन और जैन दर्शनके 'कर्म' का अर्थ भी भिन्न है । जैन धर्म बौद्ध धर्मको शाखा नहीं है यह तो सहज ही सिद्ध हो जाता है । चौद्ध दर्शनकी अपेक्षा सांख्य दर्शनसे जैन दर्शन अधिक मिलता हुवा प्रतीत होता है। सांख्य और जैन ये दोनों वेदान्तके अद्वैत बादको नहीं मानते और आत्माके बहुत्वको स्वीकार करते हैं । इसके अतिरिक्त ये दोनों, जीवसे भिन्न अजीव तत्त्व भी मानते हैं। परन्तु इससे हम यह नहीं कह सकते कि, एकने दूसरेसे कुछ मांगा है या एक मूल है और दूसरा शाखा । वारोकीसे देख तो माम होगा कि सांख्य और जैन मतका बाह्य रूप समान होत हुवे भी भीतर बहुत भेद है। उदाहरण स्वरूप सांख्य दर्शनने अजीव तत्व 7 अर्थात् प्रकृति एक ही-मानी हैं, परन्तु जैन दर्शनमें अनीवके पांच मेढ़ है, और इन पांच में पहल तो अनन्तानन्त परमाणुमय है। सांख्य केवल दो ही तत्व मानता है, किन्तु जैन दर्शनमें बहुतसे तत्व हैं । एक मुख्य अन्तर यह भी है कि, कपिल (सांख्य) दर्शन अधिकांशमें चैतन्यवादी मालूम होता है पर जैनद्रदशर्न जडवादके निकट पहुंचता हुवा प्रतीत होता है। * १ इस स्थल पर किसीको यह समझ बैठने की भूल न करनी चाहिये कि मांख्य दर्शन पूर्यत चैतन्यवादी है और जैन दर्शन पूर्णतः जड़वादी । लेखकका आशय यह नहीं है । (गुजराती अनुवादक श्री सुशील ). • यहां, साख्य दर्शन पूर्गत चैतन्यवादी है और जैन दर्शन पूर्णतः ܬ ܪ
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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