SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनवाणी हम आगे बढना चाहते है, अधिकार प्राप्त करना चाहते है, वह जिसमें अधिक उज्ज्वल और अधिक पूर्ण हो उस शुद्ध, निष्पाप प्रभु अथवा परमात्मामें हमारी श्रद्धा हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? टीकाकारोंकी वातको छोड दे। सांख्य दर्शनमें ऐसे किसी शुद्ध और परिपूर्ण परमात्माको स्थान नहीं है। पवित्र परमात्माके अस्तित्वमें श्रद्धा रखनेकी मनुष्यको स्वाभाविक प्रेरणा होती है । उसे तृप्त करनेका योग दर्शनने यत्न किया है। सांख्यके समान योग दर्शन आत्माकी सत्ता और संख्या मानता है, परन्तु यह उससे एक कदम और आगे बढ़ जाता है। वह जीवमात्रके अधीश्वर एक अनन्त और आदर्श रूप परमात्माकी सत्ता मानता है। यहां योग दर्शन और जैन दर्शनमें 'समानता दिखलाई देती है। योग दर्शनके समान जैन भी प्रभु, परमात्मा या अरिहन्तको मानते है। जैनोंका परमात्मा जगत्स्रष्टा नहीं है तथापि वह आदर्श, परिपूर्ण, शुद्ध और निर्दोष तो है ही। संसारी जीव एकाग्र चित्तसे उसका ध्यान और उसकी पूजा आदि कर सकते है । वे कहते है कि परमात्माकी भक्ति, पूजा और ध्यान-धारणासे जीवोंका कल्याण होता है, उपासकको निर्मल ज्ञानकी प्राप्ति होती है एवं अनेकविध बन्धनोंमें जकड़े हुवे प्राणीको नवीन प्रकाश और नवीन बल प्राप्त होता है। जैन और पातञ्जल, ये दोनो दर्शन उपर्युक्त सिद्धान्तको मानते है। अव हम कणादप्रणीत वैशेषिक दर्शनकी ओर आते है। संक्षेपमे, वैशेषिक दर्शनके विषयमे यह कह सकते है' आत्मा अथवा पुरुषसे जो कुछ स्वतन्त्र है वह सब प्रकृतिमें समा जाता है, यह सांल्य और योग दर्शनका मत है। इसका तात्पर्य यह
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy