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________________ जैन दर्शनका स्थान होनेके पूर्व कुकर्मक स्थानमे सुकर्मकी स्थापना होनी चाहिये । अर्थात्, भोगलालसाका स्थान वैराग्य, संयम, तप, जपको और हिंसाका स्थान अहिंसाको मिलना चाहिये । इत्यादि । वैदिककमोंके अनुष्ठानसे बहुसंख्यक निरपराध प्राणियोकी हिंसा होती है । केवल इतना ही नहीं. बल्कि इस कर्मका अनुष्ठान करनेवाला जीव, कृतक के बलसे स्वर्गादि भोगमय भूमिमें जाता है। इस प्रकार वैदिक कर्मकाण्ड प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपसे, जीवके दुःखमय भवभ्रमणका एक निमित्त बनता है। वौद्ध मत इसी लिये चैदिक कर्मकाण्डका त्याग करनेको कहता है। चौद्धोका यह मुख्य विश्वास है कि वैदिक कर्मकांड हिंसाके पापसे रंगा हुवा है तथा वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपसे निर्वाणके पथमें एक अन्तरायभूत है अत एव वह निरर्थक है । यहां यह स्पष्ट हो जाता है कि बौद्ध दर्शन, चार्वाक दर्शनके समान वेदशासनका विरोध करता है तथापि वह चार्वाकोंके भोगविलासका प्रबल विरोधी है। वैदिक, कर्मकाण्डका त्याग करने में कहीं लालसाके गहरे अन्धकूपमें न फिसला जाय, इस बातकी बौद्ध दर्शन पूर्णतः सावधानी रखता है । वह तो. कठिन संयम और त्यागसे कर्मकी लोहशृंखला तोड़नेका उपदेश देता है। ___ चौद्ध दर्शनके समान जैन दर्शन भी स्वीकार करता है कि जीव, कर्मवन्धनके कारण ही संसारमें सुखदुःख भोगता है। बौद्ध मतके समान जैन दर्शन वेदशासनको अमान्य बतलाता है और चार्वाकोंके इन्द्रिय-भोगविलासको धिक्कारता है । बौद्ध और जैन एक स्वरसे अहिंसा और वैराग्यको ही ग्राह्य बतलाते है। विशेषतः अहिंसा और वैराग्य' पर जैन मत तो खूब ही जोर देता है । इस प्रकार वाह्य दृष्टि से समानः
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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