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________________ २६३ जन दर्शनमें धर्म और अधर्म तत्व किया गया है वह न तो युक्तिसंगत ( Logical ) ही है और न ही कालक्रमसे मिलता हुआ (chronological) ही है। यह बात किस प्रकार युक्तियुक्त हो सकती है कि धर्म जीवकी केवल स्वाभाविक ऊर्च गतिमें ही सहायक है। जैन नमें तो कहा गया है कि धर्म हर प्रकारकी गतिका कारण है। जिस प्रकार वह जीवकी गतिमें सहायता देता है उसी प्रकार पुद्गलकी गतिमें भी सहायक है। हर प्रकारकी गतिका कारण धर्म, केवल जीवकी ऊर्ध्व गतिमें ही सहायता करे, यह किस प्रकार माना जा सकता है ? जब जीव, जैनसंमत नरकों से किसी एकमें जाता है लब धर्म, जीवकी उस अधोगतिमें भी सहायता देता है ऐसा हम समझ सकते हैं। धर्मतत्त्व जिस प्रकार ऊर्ध्व गतिमें सहायक है उसी प्रकार अधोगतिमें भी सहायता देता है । इसी कारण धर्म शब्दके तात्विक अर्थ 'गतिकारण' के साथ उसके नैतिक अर्थ 'पुण्यकर्म' का कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता । अधर्मके विषयमें भी कहा जा सकता है कि, यह तत्त्व जिस प्रकार दुःखमय संसार -अथवा यन्त्रणापूर्ण नेरकोंमें जीवकी स्थितिको संभवित बनाता है उसी प्रकार वह आनंदधाम ऊर्वलोकमें भी जीवकी स्थितिको संभवित करता है। अत एव स्थितिकारण अधर्मतत्त्वके साथ पापकर्मरूप अधर्मका कोई संबन्ध नहींहो सकता। इसके अतिरिक्त यह भी नहीं कहा जा सकता कि पुण्यकर्म करनेमें अमुक प्रयत्नशीलता होती है और पापकर्ममें अमुक जडता होती है, अत एव गतिकारणवाचक धर्म शब्दके साथ पुण्यकर्मवाचक धर्म शब्दका सम्बन्ध है, और स्थितिकारणवाचक अधर्म शब्दसे पापककर्मवाचक अधर्म शब्दका सम्बन्ध
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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