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________________ २५५ जन दर्शनमें धर्म और अधर्म तत्त्व दुश्मन शैतान मौजूद है । भारतमें देव और असुरकी धर्म-कथा पुरातन कालसे चली आती है। धर्मविश्वासकी चातको छोड़कर यदि दार्शनिक तत्त्वविचारकी आलोचना की जाय तो वहां भी द्वैतवादकी एक असर दृष्टिगोचर होती है। उन सब द्वैत वादोंमें आत्मा और अनात्माका भेद विशेष उल्लेख योग्य है और इस भेदकी कल्पना प्रायः सभी दर्शनोंमें किसी न किसी रूपमें रही हुई हैं। सांख्यमें यह द्वैत पुरुष-प्रकृतिके रूपमें वर्णित है; वेदान्तमें ब्रह्म और मायाके सम्बन्धके विचारमें द्वैतका कुछ आभास दिखलाई देता है; फ्रेंच तत्ववेत्ता डेकार्टके अनुयायी आत्मा और जड़की भिन्नता देख सके थे और इन्होंने उनका समन्वय करनेका वृथा प्रयास किया था। जैन दर्शनमें जीव और अजीव ये परस्पर मिन्न मूल तत्त्व हैं । इन सब द्वैतोंके अतिरिक्त अन्य भी कई प्रकारके द्वैत दार्गनिक स्वीकार करते है । यथा-सत् और असत् (Being and Non-being ), तत्त्व और पर्याय (Noumenon and Phenomenon) आदि। प्राचीन ग्रीकोने एक अन्य सुप्रसिद्ध भेदकी कल्पना की थी, वह भेद गति और स्थितिके वीचका है । हेरालीटासके शिष्योंके मतानुसार प्रत्येक स्थिति यह वास्तविक तात्विक व्यापार नहीं है, प्रदार्थ प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है और इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण गतिमान है ऐसा कह सकते हैं। दूसरी और पारमेनिडिसके शिष्य कहते है कि, गति असंभव है, परिवर्तित न हो ऐसी स्थिति ही स्वाभाविक तत्त्व है। इन दोनों पक्षोंके वादविवादसे गति और स्थिति, दोनोंको सत्यता और तात्विकता समझी जाती है । जो लोग केवल तत्त्वविचारके ही पक्षपाती
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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