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________________ जैन दर्शनमें धर्म और अधर्म तत्व २५३ कि, श्रृंखलाबद्ध गति और श्रृंखलावद्ध स्थिति जीब और जड़ पदार्थोंकी' स्वाभाविक क्रियाके आधीन है और उसके सहायक तथा अपरिहार्य हेतु होने पर भी धर्म और अधर्म सम्मिलित रूपसे या पृथक् पृथक् गति-स्थिति-श्रृंखलाके उत्पादक ( Cause ) नहीं है ' जो लोग कहते हैं कि धर्म और अधर्म प्रत्यक्षके विषय नहीं हैं अतएव वे सत्पदार्थ नहीं हैं, उन्हें जैन अयुक्तवादी कहते हैं । प्रत्यक्षके विषय न हो ऐसे अनेक पदार्थ हमें सत्य मानने पड़ते है और हम उन्हें सत्य मानते भी है। पदार्थ जब गतिशील एवं स्थितिमान देखे जाते हैं तो कोई ऐसा द्रव्य भी अवश्य होना चाहिये कि जो उनके गति और स्थिति - व्यापार में सहायता दे । इस युक्तिसे धर्म तथा अधर्मके अस्तित्व और द्रव्यत्वका अनुमान किया जाता है । कोई कोई कहते है कि, आकाश ही गतिका कारण है और आकाशसे भिन्न धर्म अथवा अधर्म द्रव्य माननेकी आवश्यकता नहीं है। जैन दार्शनिक इस मतबादकी निसारता दिखलानेके लिये कहते है कि, आकाशका गुण तो अवकाश देना ही है। यह बात समझमें आने योग्य है कि, अवकाशप्रदान यह गतिशील पदार्थोंको उनकी गतिमें सहायता देनेसे एक भिन्न वस्तु है । इन दोनों गुणोकी यह मौलिक भिन्नता ऐसे दो द्रव्योंका अस्तित्व सिद्ध करती है कि जो मूलसे ही भिन्न हों। और इसी कारण धर्मतत्त्व आकाशसे भिन्न द्रव्य हैं। और यह भी ज्ञात होता है कि, यदि आकाश गतिकारण होता तो वस्तुएं अलोकमें प्रवेश करके लोकाकाशके समान वहां भी इधर उधर सचार कर सकती थी । अलोक यह आकाशका अंश होने पर भी सर्वथा शून्य और पदार्थ रहित है। (इतना ही नहीं,
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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