SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४५ जैन दर्शनमें धर्म और अधर्म तत्व नैतिक अर्थक अतिरिक्त एक नये ही अर्थमें धर्म शब्दका प्रयोग केवल जैन दर्शनमें ही देखा जाता है। जैन दर्शनानुसार 'धर्म' एक अजीव पदार्थ है। काल, अधर्म और आकाशके समान धर्म एक अमूर्त द्रव्य है। यह लोकाकाशमें सर्वत्र व्याप्त है। और इसके प्रदेश' असंख्य है। पांच अस्तिकाय में धर्म भी एक है। यह 'अपोद्गलिक' (Immaterial) और नित्य है । धर्म-पदार्थ पूर्णतः निष्क्रिय है और अलोकमें उसका अस्तित्व नहीं है। जैन दर्शनमें धर्मको गतिकारण' कहा जाता है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि धर्म वस्तुओंको चलाता है। वह तो निष्क्रिय पदार्थ है। तब उसे 'गतिकारण' कैसे मान सकते है ? धर्म प्रत्येक पदार्थकी गतिके विषयमें 'बहिरंग हेतु' अथवा 'उदासीन हेतु' है। वह गति करनेमें पदार्थको केवल सहायता करता है। जीव अथवा कोई भी पुद्गल-द्रव्य स्वयमेव ही गतिमान होता है। वास्तवमें धर्म इन्हे किसी प्रकार भी नहीं चलाता, तो भी वह धर्म गतिमें सहायक होता है और धर्मके कारण पदार्थोंकी गति एक प्रकारसे संभवित होती है। द्रव्यसंग्रहकार कहते है : "जल जिस प्रकार गतिमान मत्स्यकी गतिमें सहायक है उसी प्रकार धर्म गतिमान जीव अथवा पुंगल-द्रव्यकी गतिमें सहायक है । वह गतिहीन पदार्थको नहीं चलाता।" कुन्दकुन्दाचार्य और अन्य जैन दार्शनिक भी इस विषयमें जल और गतिशील मत्स्यका दृष्टान्त देते हैं । " जल जिस प्रकार गतिशील मत्स्यके गमनमें सहायता देता है उसी प्रकार धर्म भी जीव और पुद्गलकी गतिमें सहायक है" (९२ पंचास्तिकाय, समयसार), तत्वार्थसारके कर्ता कहते है कि,
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy