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________________ जिनवाणी ___ जैन दार्शनिक कहते है कि प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादना (आशातना) और उपघात, ये ज्ञानावरणीय और दर्शनावर्णीय कर्मके आश्रयमें कारगभूत है। शंका-समाधानके पश्चात् भी शास्त्रमें अश्रद्धा रहनेका नाम प्रदोष है। ज्ञानके गोपनको निव कहते है । हिंसा, द्वेष या ईर्ष्या कारण ज्ञान देनेमें संकोच करना मात्सर्य कहलाता है। ज्ञानोन्नतिके मार्गमें विघ्न डालनेका नाम अन्तराय है। कार्यसे या वाक्यसे अन्य-प्रदर्शित सन्मार्गका अपलाप करना आसादना है। सत्यको सत्यरूप जानते हुवे भी अतत्त्वरूपसे उसकी स्थापना करना उपधात कहलाता है। जो जीव उक्त प्रदोषादि दोषोंसे दूषित होता है उनके विषयमें जैनाचार्य कहते है कि उस जीवमें ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मका आश्रव होता है। परिणामतः उस जीवके ज्ञान और दर्शन ढके हुवे रहते है। इसी प्रकार दुःख, शोक, आक्रन्द, वध, ताप और परिवेदना ये पूर्वोक्त असातावेदनीय कर्मके आश्रवमें निमित्तकारण है । दुःखका अर्थ कष्ट, शोकका अर्थ प्रियवियोगका क्लेश, और अनुशोचना या अनुतापका अर्थ संताप है। आंखसे आंसू निकालनेको आक्रन्द कहते है। प्राणहिसाका नाम वध है। जिससे दूसरेके हृदयमें दया उत्पन्न हो जाय ऐसा आक्रन्द करना या शोक प्रकट करना परिवेदना है। दुःखादि छः प्रकारके विभावका अनुभावक अपनेमें जैसा अनुभव करता है वैसा ही अन्योको भी अनुभव करावे अथवा स्वयं भी अनुभव करे और अन्योंको भी अनुभव करावे। इस प्रकार दुःखादि ६ विभाव अठारह भेदोमे परिणमित होते है । जैनाचार्य कहते है कि इन १८ प्रकारके विभावके कारण असातावेदनीय कर्मका
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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