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________________ जैनोंका कर्मवाद २२७ (१२४) उन्नीसवां उद्योतकर्म — इसके कारण जीवको ऐसा उज्ज्वल शरीर प्राप्त होता है कि जो समुज्ज्वल होने पर भी दूसरोंको शीतप्रकाशरूप ही मालूम होता है । उदाहरणार्थ चन्द्रलोकमें ऐसे ही शरीरधारी जीव रहते है । (१२५) बीसवां उच्छ्वासकर्म - यह कर्म जीवकी निःश्वासप्रश्वास- क्रियाका नियमन करता है । इक्कीसवां विहायोगतिकर्म - यह कर्म जीवको आकाशमें उड़नेकी गति देता है । इसके दो प्रकार हैं: (१२६) शुभ विहायोगति --- इससे सुन्दर गति होती है । (१२७) अशुभ विहायोगति — इससे वेढब गति होती है । (१२८) बाइसवां प्रत्येक शरीरकर्म – इस कर्मके कारण जो शरीर मिलता है उसे केवल एक ही जीव भोगता है । (१२९) तेइसवां साधारण शरीरकर्म – इस कर्मके कारण जो शरीर प्राप्त होता है उसमें एक साथ कई जीव रह सकते हैं । (१३०) चौबीसवां त्रसकर्म - इस कर्मसे दो इन्द्री, तीन इंद्री, चार इंद्री और पांच इन्द्रियोंवाला शरीर प्राप्त होता है । (१३१) पचीसवां स्थावरकर्म — इसके कारण एकेन्द्रिय शरीर प्राप्त होता है । १. उद्योन नामकर्म — इस कर्म से जीवोंका शरीर शीतप्रकाशरूप उद्योत करता है । २. - विहायोगति नामकर्म - इस कर्मसे हस और हाथीके समान सुन्दर तथा काक एव गर्दभके समान' अशुभ गति ( चाल ) प्राप्त होती है ।
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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