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________________ जैनोंका कर्मवाद २२५ बारहवां गंधकर्म-इससे शरीरमें गंव उत्पन्न होती है। गंधकर्मके दो भेद है (१०९) सुगन्धर्म-इसके उदयसे शरीर सुगंधवाला रहता है। (११०) दुर्गन्धकर्म-इसके उदयसे शरीर दुर्गन्धवाला रहता है। तेरहवां वर्णकर्म-इसके उदयसे शरीरका वर्ण निर्धारित होता है। वर्णकर्म पांच प्रकारका है:(१११) शुक्लवर्ण-कर्म-जिसके उदयसे गरीर शुक्लवर्ण होता है। (११२) कृष्णवर्ण-कर्म-जिसके उदयसे गरीर श्यामवर्ण होता है। (११३) नीलवर्ण-कर्म-जिसके उदयसे शरीर नीलवर्णहोता है। (११४) रक्तवर्ण-कर्म-इसके उदयसे शरीरका वर्ण लाल होता है। (११५) पीतवर्ण-कर्म-इसके उदयसे शरीर पीत वर्णवाला ' ' होता है। ' चौदहवां आनुपूर्वी कर्म-एक भव या एक गतिमेंसे भवान्तर या गत्यन्तरके समय (विग्रहगति कालमें) इस आनुपूर्वी कर्मके अनुसार जीव जिस देहको छोड़ता है उसी पूर्व देहके आकारको ग्रहण करता है। (११६) देवगत्यानुपूर्वी कर्म।। १. आनुपूर्वी नामकर्म-इस कर्मसे भवान्तरमें जाते हुवे आकाशप्रदेशकी श्रेणीका अनुसरण करके गति होती है। ૧૫
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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