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________________ २१ योगशास्त्रगत कर्मविचार सविशेष विशद एवं सविशेष वर्गीकृत है । खास कर जैन परम्परा सम्मत सत्ता, उदय, उदीरणा, क्षयोपशम, क्षय आदि कार्मिक अवस्थाओंके साथ योगशास्त्रीय वर्णनका इतना अधिक साम्य है कि देखकर अचरज होता है । यही कारण है कि, उपाध्याय यशोविजयजीने योगशास्त्र के उन सूत्रोंकी संक्षेपमें पर तुलनात्मक मार्मिक व्याख्या संस्कृतमें की है । अभ्यासीगण उपाध्यायजीकी इस व्याख्याको प्रस्तुत निबंध पढते समय देखेंगे तो विषयकी पूर्ति कुछ तो हो सकेगी । उपाध्यायजीकी वह वृत्ति हिन्दी सार सहित छपी भी है। - लेखकने पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा में कर्मतत्त्वको खास चर्चा न होनेकी कुछ सूचना की है। एक तरहसे उनका कथन अंशतः ठीक कहा जा सकता है, पर वास्तवमें वात दूसरी है । मीमांसामें अपूर्वका – यज्ञ आदि जन्य अपूर्वका - उसके गौण मुख्यत्वका, फलाफलका और उत्सर्ग - अपवाद आदिका जो विचार है वह दार्शनिक अभ्यासीके लिये उपेक्षणीय नहीं । उत्तर मीमांसामें आत्मविचारका प्राधान्य है सही, पर अविद्यातत्त्वका तथा मूलाविद्या तथा तुलाविद्याका या मूलाज्ञान और उसकी अवस्थाओंका जो विचार है अथवा यो कहिये कि मायाकी आवरणशक्ति तथा विक्षेपशक्तिका जो विचार है वह सामान्य नहीं । वह हमें जैन परम्परावर्णित दर्शनमोह और ज्ञानावरण जैसे भावकर्मके विचारके नजदीक पहुंचाता है । लेखकने बौद्ध परम्परा - सम्मत कर्मविचारका निर्देश किया है, पर वह अधिक विस्तारको अपेक्षा रखता है । एक तरहसे चौद्ध १. पातञ्जलयोगसूत्र पाद २, सूत्र ३ से आगे, सभाष्य ।
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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