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________________ महामेयवाहन महाराजा खारवेल ध्रमनुशस्ति अनुवटंति (1) यत्रपि देवानं प्रियस दूत न वचंति ते पि श्रु (तु) देवानं प्रिअस भ्रमबुद्धं विधेनं ध्रमनुगस्ति ध्रम (अनु) विधियंति अनुविधियिगंति च (1) यो (च) लवे एतकेन भोति सवत्र विजयो स (वत्र पून ) विजयो प्रितिरसो सो (1) लघ (भोति) प्रिति ध्रमविजयस्पि (1.) लहुक तु यो स प्रिति (1) परत्रिक मेव महफल मेंचति देवानं प्रियो । एतये व अठहे अयो भ्रमदिपि (दि) पिस्त कि ति । पुत्र प्रपोत्र मे असु नवं विजयं म विजेतवि (य) म् मंचिपु क यो भिजये (छम् ) तिच लड्डुदम् (ड) तं च रोचेतु तं ए (व) विजमंच (1) यो ध्रमविजये सो हिदलोकिको परलोकिक सत्र च निवति भोतु य (स्त्र) मरति (1) स हि हितकोकिक परलोकिक (1)" इस लेखका मर्म इस प्रकार है " अभिषेकके अष्टम वर्षमें देवप्रिय राजा प्रियदर्शीने कलिंग पर विजय प्राप्त की । इस युद्वमें एक लाख ( शतसहन ) मनुष्य मारे गये, और इससे भी अधिक वन्दी बने । कलिंग-विजयके पश्चात् देवप्रियका मन धर्मकी और आकर्षित हुवा । देवप्रियके मनमें अत्यन्त पश्चात्ताप होनेसे और-कलिंग विजयके कारण अन्यन्त अनुताप उत्पन्न होनेसे इनका धर्मप्रेम अत्यन्त बढ़ गया है। अविजित देशों पर अधिकार प्राप्त करनेमें जो वध करना पड़ता है, मनुष्योंको मारना पड़ता है और उन्हे बन्दी बनाना पडता है उससे मेरे अन्तःकरणको बहुत चोट पहुंची है । विशेष खेदका विषय तो यह है कि ब्राह्मण, श्रमण, यति और धार्मिक गृहस्थ सर्वत्र रहते है, इनमेंसे कितने ही गुरुजन, मातापिता आदिकी सेवा करते होगे, बन्धु-बान्धव और जातिवालोंकी सेवामें
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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