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________________ भगवान पार्श्वनाथ १७५ हैं। वस्तुतः सम्यग् श्रद्धा और सम्यम् ज्ञानके बिना जीवके निस्तार पानेका अन्य कोई उपाय नहीं है।" पर यह तापस था कौन उसका नाम कमठ । अज्ञान तप तपते हुवे, अन्तःकरणमें वैरभाव धारण किये हुवे वह कमठ, पंकप्रभा नरकके दुःख भोगकर, विविध तिर्यंचोंकी योनिमें भ्रमण करता हुवा यहां आया था। वही फिर मेघमाली हुवा। वायुके कणकणमें वसन्तकी मादकता भरी थी। वृक्ष, लता, पुष्प और तोरण सभी ऋतुराजका जयगान कर रहे थे। वसन्तोत्सवके मौन संगातसे दिशाएं मुखरित हो रही थीं। पार्श्वकुमार भी यह उत्सव मनानेके लिये उद्यान-विहार कर रहे थे। इतनेमें उनकी दृष्टि महलकी भीत पर चित्रित एक चित्र पर पड़ी। यह चित्र श्रीनेमिनाथ भगवानका था। चित्रकारने इसमें अपना पूरा पूरा कौशल दिखलाया था। "राजिमती जैसी अनन्य अनुरागवती स्त्रीका, विवाहके समय ही, त्याग करके चले जानेवाला पुरुष क्या यही है ? यौवनके आरम्भमें नवयौवनाका त्याग करनेवाला यह पुरुष कितना इन्द्रियजित होगा ?" पार्वकुमार उपरोक्त चित्र देखते हो विराग-भावनाकी पुनित श्रेणी पर आरुढ हो गये। : चारों ओर व्याप्त विलास-प्रमोदकीरागनीमें पावकुमारने विषादका स्वर सुना। उत्सवका सव आनन्द हवा हो गया। इनके गृहस्थावासकार यह तीसवां वर्ष था।
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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